सोमवार, 7 अक्टूबर 2013

वेलेंटाइन डे (VALENTINE DAY) की कहानी - श्री राजीव दीक्षित जी

यूरोप (और अमेरिका)  का समाज जो है वो रखैलों (Kept) में विश्वास करता है पत्नियों में नहीं, यूरोप और अमेरिका में आपको शायद ही ऐसा कोई पुरुष या महिला मिले जिसकी एक शादी हुई हो, जिनका एक पुरुष से या एक स्त्री से सम्बन्ध रहा हो और ये एक दो नहीं हजारों साल की परंपरा है उनके यहाँ | आपने एक शब्द सुना होगा “Live in Relationship” ये शब्द आज कल हमारे देश में भी नव-अभिजात्य वर्ग में चल रहा है, इसका मतलब होता है कि “बिना शादी के पति-पत्नी की तरह से रहना” | तो उनके यहाँ, मतलब यूरोप और अमेरिका में ये परंपरा आज भी चलती है, खुद प्लेटो (एक यूरोपीय दार्शनिक) का एक स्त्री से सम्बन्ध नहीं रहा, प्लेटो ने लिखा है कि “मेरा 20-22 स्त्रियों से सम्बन्ध रहा है” अरस्तु भी यही कहता है, देकार्ते भी यही कहता है, और रूसो ने तो अपनी आत्मकथा में लिखा है कि “एक स्त्री के साथ रहना, ये तो कभी संभव ही नहीं हो सकता, It’s Highly Impossible” | तो वहां एक पत्नीव्रत जैसा कुछ होता नहीं | और इन सभी महान दार्शनिकों का तो कहना है कि “स्त्री में तो आत्मा ही नहीं होती” “स्त्री तो मेज और कुर्सी के समान हैं, जब पुराने से मन भर गया तो पुराना हटा के नया ले आये ” | तो बीच-बीच में यूरोप में कुछ-कुछ ऐसे लोग निकले जिन्होंने इन बातों का विरोध किया और इन रहन-सहन की व्यवस्थाओं पर कड़ी टिप्पणी की | उन कुछ लोगों में से एक ऐसे ही यूरोपियन व्यक्ति थे जो आज से लगभग 1500 साल पहले पैदा हुए, उनका नाम था - वैलेंटाइन | और ये कहानी है 478 AD (after death) की, यानि ईशा की मृत्यु के बाद |
उस वैलेंटाइन नाम के महापुरुष का कहना था कि “हमलोग (यूरोप के लोग) जो शारीरिक सम्बन्ध रखते हैं कुत्तों की तरह से, जानवरों की तरह से, ये अच्छा नहीं है, इससे सेक्स-जनित रोग (veneral  disease) होते हैं, इनको सुधारो, एक पति-एक पत्नी के साथ रहो, विवाह कर के रहो, शारीरिक संबंधो को उसके बाद ही शुरू करो” ऐसी-ऐसी बातें वो करते थे और वो वैलेंटाइन महाशय उन सभी लोगों को ये सब सिखाते थे, बताते थे, जो उनके पास आते थे, रोज उनका भाषण यही चलता था रोम में घूम-घूम कर | संयोग से वो चर्च के पादरी हो गए तो चर्च में आने वाले हर व्यक्ति को यही बताते थे, तो लोग उनसे पूछते थे कि ये वायरस आपमें कहाँ से घुस गया, ये तो हमारे यूरोप में कहीं नहीं है, तो वो कहते थे कि “आजकल मैं भारतीय सभ्यता और दर्शन का अध्ययन कर रहा हूँ, और मुझे लगता है कि वो परफेक्ट है, और इसलिए मैं चाहता हूँ कि आप लोग इसे मानो”, तो कुछ लोग उनकी बात को मानते थे, तो जो लोग उनकी बात को मानते थे, उनकी शादियाँ वो चर्च में कराते थे और एक-दो नहीं उन्होंने सैकड़ों शादियाँ करवाई थी | जिस समय वैलेंटाइन हुए, उस समय रोम का राजा था क्लौड़ीयस, आप उसे चक्रवर्ती सम्राट की श्रेणी में रख सकते हैं | क्लौड़ीयस ने कहा कि “ये जो आदमी है-वैलेंटाइन, ये हमारे यूरोप की परंपरा को बिगाड़ रहा है, हम बिना शादी के रहने वाले लोग हैं, मौज-मजे में डूबे रहने वाले लोग हैं, और ये शादियाँ करवाता फिर रहा है, ये तो अपसंस्कृति फैला रहा है, हमारी संस्कृति को नष्ट कर रहा है”, तो क्लौड़ीयस ने आदेश दिया कि “जाओ वैलेंटाइन को पकड़ के लाओ “, तो उसके सैनिक वैलेंटाइन को पकड़ के ले आये | क्लौड़ीयस ने वैलेंटाइन से कहा कि “ये तुम क्या गलत काम कर रहे हो ? तुम अधर्म फैला रहे हो, अपसंस्कृति ला रहे हो” तो वैलेंटाइन ने कहा कि “मुझे लगता है कि ये ठीक है” , क्लौड़ीयस ने उसकी एक बात न सुनी और उसने वैलेंटाइन को फाँसी की सजा दे दी, आरोप क्या था कि वो बच्चों की शादियाँ कराते थे, मतलब शादी करना जुर्म था | क्लौड़ीयस ने उन सभी बच्चों को बुलाया, जिनकी शादी वैलेंटाइन ने करवाई थी और उन सभी के सामने वैलेंटाइन को 14 फ़रवरी 498 ईस्वी को फाँसी दे दिया गया | पता नहीं आपमें से कितने लोगों को मालूम है कि पुरे यूरोप में 1950 ईस्वी तक खुले मैदान में, सार्वजानिक तौर पर फाँसी देने की परंपरा थी |  तो जिन बच्चों ने वैलेंटाइन के कहने पर शादी की थी वो बहुत दुखी हुए और उन सब ने उस वैलेंटाइन की दुखद याद में 14 फ़रवरी को वैलेंटाइन डे मनाना शुरू किया तो उस दिन से यूरोप में वैलेंटाइन डे मनाया जाता है | मतलब ये हुआ कि वैलेंटाइन, जो कि यूरोप में शादियाँ करवाते फिरते थे, चूकी राजा ने उनको फाँसी की सजा दे दी, तो उनकी याद में वैलेंटाइन डे मनाया जाता है | ये था वैलेंटाइन डे का इतिहास और इसके पीछे का आधार |
अब यही वैलेंटाइन डे भारत आ गया है जहाँ शादी होना एकदम सामान्य बात है यहाँ तो कोई बिना शादी के घूमता हो तो अद्भुत या अचरज लगे लेकिन यूरोप में शादी होना ही सबसे असामान्य बात है | अब ये वैलेंटाइन डे हमारे स्कूलों में कॉलजों में आ गया है और बड़े धूम-धाम से मनाया जा रहा है और हमारे यहाँ के लड़के-लड़कियां बिना सोचे-समझे एक दुसरे को वैलेंटाइन डे का कार्ड दे रहे हैं | और जो कार्ड होता है उसमे लिखा होता है ” Would You Be My Valentine” जिसका मतलब होता है “क्या आप मुझसे शादी करेंगे” | मतलब तो किसी को मालूम होता नहीं है, वो समझते हैं कि जिससे हम प्यार करते हैं उन्हें ये कार्ड देना चाहिए तो वो इसी कार्ड को अपने मम्मी-पापा को भी दे देते हैं, दादा-दादी को भी दे देते हैं और एक दो नहीं दस-बीस लोगों को ये ही कार्ड वो दे देते हैं | और इस धंधे में बड़ी-बड़ी कंपनियाँ लग गयी हैं जिनको ग्रीटिंग कार्ड बेचना है, जिनको गिफ्ट बेचना है, जिनको मिठाइयाँ बेचनी हैं और टेलीविजन चैनल वालों ने इसका धुआधार प्रचार कर दिया | ये सब लिखने के पीछे का उद्देश्य यही है कि नक़ल आप करें तो उसमे अकल भी लगा लिया करें | उनके यहाँ साधारणतया शादियाँ नहीं होती है और जो शादी करते हैं वो वैलेंटाइन डे मनाते हैं लेकिन हम भारत में ??????

1757 प्लासी का युद्ध की सच्चाई - श्री राजीव दीक्षित जी

कुछ समय से मैंने ये निर्णय लिया है कि भारत के उन चीजों के बारे में आप सब लोगों को जानकारी दूँ जो हमें गलत बताया गया है | आप लोगों के ज्ञान को मैं कम कर के नहीं आंक रहा हूँ लेकिन कई बातें ऐसी होती हैं जो असल में वैसी होती नहीं है जैसा हमें बताया जाता है | मसलन भारत में हमेशा ये पढाया गया की भारत अंधेरों का देश था, भारत मदारियों का देश था, भारत संपेरों का देश था, अंग्रेज़ आये तो उन्होंने हमें सब सिखाया, हमें शिक्षित किया, अंग्रेज नहीं आते तो हमारे यहाँ पिछड़ापन ही पसरा रहता, हम अंधेरों में ही घिरे रहते, वगैरह वगैरह | दुःख तो ज्यादा तब होता है जब हमारे देश के प्रधानमंत्री और अन्य कैबिनेट मंत्री इस तरीके की बात करते हैं | क्या हम वाकई अँधेरे में थे ? क्या हम वाकई जाहिल थे ? क्या हम वाकई पिछड़े थे ? ये सवाल मेरे मन में हमेशा रहा | फिर मन ये जवाब भी देता था कि अगर हम वाकई पिछड़े थे तो क्या अंग्रेज यहाँ 250 साल घास छिल रहे थे, उसके पहले पुर्तगाली आये, स्पैनिश आये, और बहुत से लोग आये | मैं आप सब से पूछता हूँ कि गरीब के घर में कोई रहता है क्या ? और उनको सुधारने और अच्छा बनाने का ठेका कोई लेता है क्या ? और वो भी गोरी चमड़ी वाले ? असंभव | इसी सिलसिले में मैंने कुछ तथ्य आप सब लोगों के सामने लाने का संकल्प लिया है | और ये लेखपरम सम्मानीय राजीव दीक्षित भाई के विभिन्न व्याख्यानों में से जोड़ के मैंने बनाया है, उम्मीद है कि आप लोगों के ये पसंद आएगी |
सन 1757 की पलासी की लड़ाई
 
जैसा कि आप सब जानते हैं कि अंग्रेजों को भारत में व्यापार करने का अधिकार जहाँगीर ने 1618 में दिया था और 1618 से लेकर 1750 तक भारत के अधिकांश रजवाड़ों को अंग्रेजों ने छल से कब्जे में ले लिया था | बंगाल उनसे उस समय तक अछूता था | और उस समय बंगाल का नवाब था सिराजुदौला | बहुत ही अच्छा शासक था, बहुत संस्कारवान था | मतलब अच्छे शासक के सभी गुण उसमे मौजूद थे | अंग्रेजों का जो फ़ॉर्मूला था उस आधार पर वो उसके पास भी गए व्यापार की अनुमति मांगने के लिए गए लेकिन सिराजुदौला ने कभी भी उनको ये इज़ाज़त नहीं दी क्यों कि उसके नाना ने उसको ये बताया था कि सब पर भरोसा करना लेकिन गोरों पर कभी नहीं और ये बातें उसके दिमाग में हमेशा रहीं इसलिए उसने अंग्रेजों को बंगाल में व्यापार की इज़ाज़त कभी नहीं दी | इसके लिए अंग्रेजों ने कई बार बंगाल पर हमला किया लेकिन हमेशा हारे | मैं यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि अंग्रेजों ने कभी भी युद्ध करके भारत में किसी राज्य को नहीं जीता था, वो हमेशा छल और साजिस से ये काम करते थे | उस समय का बंगाल जो था वो बहुत बड़ा राज्य था उसमे शामिल था आज का प. बंगाल, बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, बंग्लादेश, पूर्वोत्तर के सातों राज्य और म्यांमार (बर्मा) | हम जो इतिहास पढ़ते हैं उसमे बताया जाता है कि पलासी के युद्ध में अंग्रेजों और सिराजुदौला के बीच भयंकर लड़ाई हुई और अंग्रेजों ने सिराजुदौला को हराया | लेकिन सच्चाई कुछ और है, मन में हमेशा ये सवाल रहा कि आखिर सिराजुदौला जैसा शासक हार कैसे गया ? और ये भी सवाल मन में था कि आखिर अंग्रेजों के पास कितने सिपाही थे ? और सिराजुदौला के पास कितने सिपाही थे ? भारत में पलासी के युद्ध के ऊपर जितनी भी किताबें हैं उनमे से किसी में भी इस संख्या के बारे में जानकारी नहीं है | इस युद्ध की सारी जानकारी उपलब्ध है लन्दन के इंडिया हाउस लाइब्ररी में | बहुत बड़ी लाइब्ररी है और वहां भारत की गुलामी के समय के 20 हज़ार दस्तावेज उपलब्ध है | वहां उपलब्ध दस्तावेज के हिसाब से अंग्रेजों के पास पलासी के युद्ध के समय मात्र 300 -350 सिपाही थे और सिराजुदौला के पास 18 हजार सिपाही | किसी भी साधारण आदमी से आप ये प्रश्न कीजियेगा कि एक तरफ 300 -350 सिपाही और दूसरी तरफ 18 हजार सिपाही तो युद्ध कौन जीतेगा ? तो जवाब मिलेगा की 18 हजार वाला लेकिन पलासी के युद्ध में 300 -350 सिपाही वाले अंग्रेज जीत गए और 18 हजार सिपाही वाला सिराजुदौला हार गया | और अंग्रेजों के House of Commons में ये कहा जाता था कि अंग्रेजों के 5 सिपाही = भारत का एक सिपाही | तो सवाल ये उठता है कि इतने मज़बूत 18 हजार सिपाही उन कमजोर 300 -350 सिपाहियों से हार कैसे गए ?
अंग्रेजी सेना का सेनापति था रोबर्ट क्लाइव और सिराजुदौला का सेनापति था मीरजाफर | रोबर्ट क्लाइव ये जानता था कि आमने सामने का युद्ध हुआ तो एक घंटा भी नहीं लगेगा और हम युद्ध हार जायेंगे और क्लाइव ने कई बार चिठ्ठी लिख के ब्रिटिश पार्लियामेंट को ये बताया भी था | इन दस्तावेजों में क्लाइव की दो चिठियाँ भी हैं | जिसमे उसने ये प्रार्थना की है कि अगर पलासी का युद्ध जितना है तो मुझे और सिपाही दिए जाएँ | उसके जवाब में ब्रिटिश पार्लियामेंट के तरफ से ये चिठ्ठी भेजी गयी थी कि हम अभी (1757 में) नेपोलियन बोनापार्ट के खिलाफ युद्ध लड़ रहे हैं और पलासी से ज्यादा महत्वपूर्ण हमारे लिए ये युद्ध है और इस से ज्यादा सिपाही हम तुम्हे नहीं दे सकते | तुम्हारे पास जो 300 -350 सिपाही हैं उन्ही के साथ युद्ध करो | रोबर्ट क्लाइव ने तब अपने दो जासूस लगाये और उनसे कहा कि जा के पता लगाओ कि सिराजुदौला के फ़ौज में कोई ऐसा आदमी है जिसे हम रिश्वत दे, लालच दे और रिश्वत के लालच में अपने देश से गद्दारी कर सके | उसके जासूसों ने ये पता लगा के बताया की हाँ उसकी सेना में एक आदमी ऐसा है जो रिश्वत के नाम पर बंगाल को बेच सकता है और अगर आप उसे कुर्सी का लालच दे तो वो बंगाल के सात पुश्तों को भी बेच सकता है | और वो आदमी था मीरजाफर, और मीरजाफर ऐसा आदमी था जो दिन रात एक ही सपना देखता था कि वो कब बंगाल का नवाब बनेगा | ये बातें रोबर्ट क्लाइव को पता चली तो उसने मीरजाफर को एक पत्र लिखा | ये पत्र भी उस दस्तावेज में उपलब्ध है | उसने उस पत्र में दो ही बाते लिखी | पहला ये कि “अगर तुम हमारे साथ दोस्ती करो और ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ समझौता करो तो हम युद्ध जीतने के बाद तुम्हे बंगाल का नवाब बना देंगे” और दूसरी बात कि “जब तुम बंगाल के नवाब हो जाओगे तो बंगाल की सारी सम्पति तुम्हारी हो जाएगी और उस सम्पति में से 5% हमें दे देना और बाकि तुम जितना लूटना चाहो लुटते रहना” | मीरजाफर तो दिन रात यही सपना देखा करता था तो उसने तुरत रोबर्ट क्लाइव को एक पत्र लिखा कि “मुझे आपकी दोनों शर्तें मंज़ूर हैं, बताइए करना क्या है ?” तो क्लाइव ने इस सम्बन्ध में अंतिम पत्र लिखा और कहा कि “तुमको बस इतना करना है कि युद्ध जिस दिन शुरू होगा उस दिन तुम अपने 18 हजार सिपाहियों से कहना कि वो मेरे सामने समर्पण कर दे | तो मीरजाफर ने कहा कि ये हो जायेगा लेकिन आप अपने जबान पर कायम रहिएगा | क्लाइव का जवाब था कि हम बिलकुल अपनी जबान पर कायम रहेंगे |
और तथाकथित युद्ध शुरू हुआ 23 जून 1757 को और बंगाल के 18 हजार सिपाहियों ने सेनापति मीरजाफर के कहने पर 40 मिनट के अन्दर समर्पण कर दिया और रोबर्ट क्लाइव के 300 -350 सिपाहियों ने बंगाल के 18 हजार सिपाहियों को बंदी बना लिया और कलकत्ता के फोर्ट विलियम में बंद कर दिया और 10 दिनों तक सबों को भूखा प्यासा रखा और ग्यारहवें दिन सब की हत्या करवा दी | और हत्या करवाने में मीरजाफर क्लाइव के साथ शामिल था | उसके बाद क्लाइव ने मीरजाफर के साथ मिल कर मुर्शिदाबाद में सिराजुदौला की हत्या करवाई | उस समय मुर्शिदाबाद बंगाल की राजधानी हुआ करती थी | और फिर वादे के अनुसार क्लाइव ने मीरजाफर को बंगाल का नवाब बना दिया और बाद में क्लाइव ने अपने हाथों से मीरजाफर को छुरा घोंप कर मार दिया | इसके बाद रोबर्ट क्लाइव ने कलकत्ता को जमकर लुटा और 900 पानी के जहाज भरकर सोना, चांदी, हीरा, जवाहरात लन्दन ले गया | वहां के संसद में जब क्लाइव गया तो वहां के प्रधानमंत्री ने उस से पूछा कि “ये भारत से लुट के तुम ले के आये हो ?” तो क्लाइव ने कहा कि “नहीं इसे मैं भारत के एक शहर कलकत्ता से लुट के लाया हूँ” | फिर उससे पूछा गया कि “कितना होगा ये ?” तो क्लाइव ने कहा “मैंने इसकी गणना तो नहीं की है लेकिन Roughly 1000 Million स्टर्लिंग पौंड का ये होगा” | (1 Million = 10 लाख) | उस समय (1757) के स्टर्लिंग पौंड के कीमत में 300 गुना कमी आयी है और आज के हिसाब से उसका मूल्यांकन किया जाये तो ये होगा 1000X1000000X300X80 | Calculator तो फेल हो जायेगा | रोबर्ट क्लाइव ऐसा करने वाला अकेला नहीं था, ऐसे 84 अधिकारी भारत आये और सब ने भारत को बेहिसाब लुटा | वारेन हेस्टिंग्स, कर्जन,लिलिथ्गो, डिकेंस, बेंटिक, कार्नवालिस जैसे लोग आते रहे और भारत को लुटते रहे | तो ये थी पलासी के युद्ध की असली कहानी |
मीरजाफर ने अपनी हार और क्लाइव की जीत के बाद कहा कि “अंग्रेजो आओ तुम्हारा स्वागत है इस देश में, तुम्हे जितना लुटा है लूटो, बस मुझे कुछ पैसा दे दो और कुर्सी दे दो” | 1757 में तो सिर्फ एक मीरजाफर था जिसे कुर्सी और पैसे का लालच था अभी तो हजारों मीरजाफर इस देश में पैदा हो गए हैं जो वही भाषा बोल रहे हैं | जो वैसे ही देश को गुलाम बनाने में लगे हुए हैं जैसे मीरजाफर ने इस देश को गुलाम बनाया था | सब पार्टी के नेता एक ही सोच रखते हैं चाहे वो ABC पार्टी के हों या XYZ पार्टी के | आप किसी को अच्छा मत समझिएगा क्यों कि इन 64 सालों में सब ने चाहे वो राष्ट्रीय पार्टी हो या प्रादेशिक पार्टी, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सत्ता का स्वाद तो सबो ने चखा ही है |

अभी देश आजाद नही हुआ - श्री राजीव दीक्षित जी

1947 में जब देश आजाद हुआ तो बीबीसी के एक पत्रकार ने गांधीजी से पूछा कि ” बापू, अब तो देश आजाद हो गया है, अब आप किससे लड़ेंगे” ? तो गांधीजी ने कहा कि “अभी देश आजाद नहीं हुआ, अभी तो अंग्रेज सिर्फ भारत छोड़ के जा रहे हैं, अभी तो अंग्रेजों की बनाई गयी जो व्यवस्था है, जो नियम है, जो कानून है, अभी तो हमको उसे बदलना है, असली लड़ाई तो अब होगी”| गाँधी जी कुछ करते उससे पहले उनकी हत्या हो गयी लेकिन उनके द्वारा घोषित व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई आज तक नहीं हो पाई है | गांधीजी के शरीर को तो एक व्यक्ति ने मारा था यहाँ तो 64 सालों में गांधीजी के विचारों को मार दिया गया है (ध्यान दीजियेगा -उनके विचार मरे नहीं बल्कि मार दिए गए) और उनकी आत्मा को दफना दिया गया है, इन 64 सालों में भारत का एक भी प्रधानमंत्री नहीं हुआ जिसने गाँधी जी के समाधि पर जाकर नाटक नहीं किया | गाँधी जी की लड़ाई वहीं रुक गयी उनके जाने के बाद और सत्ता की लड़ाई शुरू हुई | भारत के लोग धीरे-धीरे व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को भूलते चले गए और आज 64 साल बाद दुःख से कहना पड़ता है कि वो सब कानून आज भी इस देश में वैसे ही चल रहे हैं जो कभी भारतीयों को प्रताड़ित करने के लिए बनाये थे और लगाये थे | मतलब ये हुआ कि अंग्रेज चले गए लेकिन अंग्रेजियत नहीं गयी, सत्ता का हस्तांतरण हुआ लेकिन स्वतंत्रता नहीं आयी | स्वतंत्रता कोई बड़ी चीज होती है और सत्ता का हस्तांतरण बहुत छोटी चीज होती है, सत्ता गोरे अंग्रेजों के हाथ से निकल कर काले अंग्रेजों के हाथ में आ गयी, बस यही हुआ, स्वतंत्रता नहीं आयी | स्वतंत्रता दो शब्दों को मिला के बना है स्व+तंत्र , और “स्व” का मतलब होता है “अपना” और “तंत्र” का मतलब होता है “व्यवस्था” | जब तक हम अपना तंत्र नहीं बनायेंगे तब तक हम स्वतंत्र कैसे हुए, तंत्र तो अंग्रेजों का ही चल रहा है, अब तंत्र उनका चल रहा है तो लूट भी वैसे ही हो रहा है जैसे अंग्रेज लुटा करते थे | और जो तथाकथित विकास हुआ, उस विकास के पैमाने क्या हैं इस देश में, इसको भी देखिये…………….
  • 1947  में जब देश आजाद हुआ तो इस देश के ऊपर एक नए पैसे का विदेश कर्ज नहीं था और विकास इतना हुआ है कि प्रत्येक भारतीय पर दस हजार रूपये से ज्यादा का कर्ज लदा हुआ है | दो सौ साल अंग्रेजों ने इस देश को लुटा तो भी हमारे ऊपर एक नए पैसे का विदेशी कर्ज नहीं था और आजादी के 64 साल बाद इस देश का बच्चा-बच्चा कर्जदार हो गया है, ये विकास हुआ है इस देश का |
  • भारत जब आजाद हुआ तो सारी दुनिया के व्यापार में हमारे देश की हिस्सेदारी दो प्रतिशत थी और आज 2012 में यह घटकर आधे प्रतिशत से भी कम हो गया है, ये विकास हुआ है इस देश का |
  • रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार 1947-48 में हमारा विदेशी व्यापार घाटा दो करोड़ रूपये का था, आज 2011 के अंत में ये बढ़ कर 13601 मिलियन अमेरिकी डौलर का हो गया है, ये विकास हुआ है इस देश का |
  • 1947-48 में चार आने सेर का गेंहू बिकता था इस देश में, आज 20 रूपये किलो का गेंहू हो गया है, ये विकास हुआ है इस देश का |
  • रिजर्व बैंक के आंकड़ों के हिसाब से 1947-48 में छः आने का एक सेर दूध बिकता था गाय का, और वो भी शुद्ध, और आज 32 -35 रूपये लीटर पावडर का दूध मिल रहा है, ये विकास हुआ है इस देश का |
  • 1947-48 में तीन पैसे की एक सेर तरकारी (सब्जी) मिलती थी, आज 20 रूपये में एक पाव तरकारी मिल जाये तो भाग्यशाली समझिएगा,ये विकास हुआ है इस देश का |
  • 1947 -48 में सबसे अच्छे आम खाने को ही नहीं बाटने को मिलते थे और आज 2012 में आम तो खाना दूर मैंगो फ्रूटी मिल रही है 200 रूपये किलो और कहते हैं विकास हुआ है इस देश का |
  • इस देश में प्रचुर मात्रा में पानी था और देश की नदियाँ पानी भरी रहती थी, आज 500 -600 फीट पर पानी नहीं मिलता, नेताओं के घर में, चौक-चौराहों पर पानी के फव्वारे लगे हैं और टेलीविजन पर प्रचार आता है “पानी का मोल पहचानिए” ये हुआ है विकास इस देश का |
  • जमीन, पानी, दूध और शिक्षा इस देश में कभी बिकने की वस्तु नहीं रही, आज सब बिक रहा है बाजार में, और पानी बिक रहा है 12 रूपये का एक लीटर और कह रहे हैं कि विकास हो रहा है |
  • 1947 -48 में 4 करोड़ गरीब थे इस देश में, आज 84 करोड़ गरीब हो गए हैं और छाती ठोक-ठोक के कह रहे हैं कि विकास हो रहा है |
  • 1952 में हमारे देश के सबसे गरीब आदमी को 12 रूपये मिलते थे वो आज बढ़ के 20 रूपये हो गयी है, मतलब 8 रूपये की वृद्धि हुई है 64 सालों में और अगर उसमे inflation को जोड़ दे तो ये बढ़ोतरी नहीं घटोतरी हुई है, और 1952 में हमारे देश के MPs को और MLAs को जितना पैसा मिलता था उसमे 1000 गुने की वृद्धि हुई है , ये विकास हुआ है इस देश का |
  • इस देश के 84 करोड़ लोगों को एक दिन में 20 रुपया नहीं मिल रहा है और देश के राष्ट्रपति के ऊपर एक दिन का खर्चा 8 लाख रुपया है, और साल भर का खर्च जोड़ दे तो ये 29 करोड़ रूपये है, ये विकास हुआ है इस देश का |
  • इस देश के 84 करोड़ लोगों को एक दिन में 20 रुपया नहीं मिल रहा है और देश के प्रधानमंत्री के ऊपर एक दिन में होने वाला खर्चा 7 लाख रुपया है और साल में लगभग 25 करोड़ रुपया, ये विकास हुआ है इस देश का |
  • वर्तमान में भारत के 70 करोड़ किसानों पर एक साल में 10 हजार करोड़ रुपया खर्च होता है और भारत के सवा पाँच हजार MLSs , 850 MPs , जिनमे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति शामिल हैं, उनका खर्च एक साल में 80 हजार करोड़ रुपया है, किस भारत में हम जी रहे हैं और किस भारत के भविष्य की कल्पना कर रहे हैं हम |

वालमार्ट और खुदरा बाजार - श्री राजीव दीक्षित जी

भारत की अर्थव्यवस्था का अध्ययन जब आप करेंगे तो पाएंगे कि हमारी अर्थव्यवस्था जो है उसका 80% unorganised sector में चलती है और 20% अर्थव्यवस्था ही organised है | हमारी जो बड़ी-बड़ी कंपनियां, प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर में हैं वो इस 20% हिस्से में हैं और 80% हिस्सा unorganised सेक्टर में हैं, जैसे छोटे उद्योग, मंझोले उद्योग, कृषि क्षेत्र, फुटपाथ की दुकाने, किराना दुकाने, परचून की दुकाने (General Store)   | फूटपाथ पर हमारे यहाँ बाज़ार लगते हैं, दिल्ली में चले जाइये, दिल्ली की दुकानों में, मौलों में जितना समान बिकता है उससे ज्यादा दिल्ली के फुटपाथों पर बिकता है, मुंबई चले जाइये, कोलकाता चले जाइये, चेन्नई चले जाइये, बंगलौर चले जाइये, हैदराबाद चले जाइये, हर बड़े शहर में आपको ऐसे बाजार मिल जायेंगे और कितना सुन्दर बाजार है ये , कोई बिल्डिंग नहीं, कोई स्ट्रक्चर नहीं, कोई ए.सी. नहीं, establishment का खर्चा शुन्य | हजारों करोड़ का बाज़ार हैं ये और ये इतना व्यवस्थित और इतना सुन्दर बाज़ार क्यों लगता है, क्योंकि मौसम की मेहरबानी है हमारे देश के ऊपर | मौसम हमारे यहाँ इतना अनुकूल है कि हमको मालूम है कि बारिस के मौसम में ही बारिस आएगी, सर्दी के दिनों में ही सर्दी होगी, गर्मी के दिनों में ही गर्मी होगी, इसलिए ये बाजार लगता है और सजता है | और दूसरी बात कि भारत में जीवन को चलाने के लिए जितनी जरूरत की चीजे होती हैं वो हर समान हर जगह होती है | Indian Council for Agricultural Research (ICAR)  के दस्तावेज मेरे पास हैं और उनके अनुसार भारत में 14785 वस्तुएं होती हैं | ये भारत की सभी राज्यों में एक समान होती हैं और भारत के उन शहरों या गाँव को बाहर से केवल नमक मांगना पड़ता है, बाकी हर जरूरत की चीज उसी राज्य में हो जाती हैं | यूरोप और अमेरिका में चूकी मौसम की अनुकूलता नहीं है, साल में नौ महीने ठण्ड पड़ती है और उनके यहाँ कभी भी बारिस हो जाती है और बर्फ भी बहुत पड़ती है, धुप का दर्शन तो साल में 300 दिन होता ही नहीं है | इसके अलावा उनके कृषि क्षेत्र में कुछ होता नहीं है, कुल मिला के दो ही चीजें होती हैं, आलू और प्याज और थोडा बहुत गेंहू, हाँ अमेरिका, यूरोप से थोडा बेहतर है, थोडा सा | वहां कुछ चीजें यूरोप से ज्यादा हो जाती है बाकी उसका भी वही हाल है | तो अपनी इन कमियों को पूरा करने के लिए उन्हें बाहर से वस्तुओं का आयात करना पड़ता है | तो उनकी ये समस्या है, जीवन चलाने के लिए चाहिए तो सब कुछ लेकिन होता कुछ भी नहीं तो बाहर से जो समान आते हैं उनको centralised कर के उनको रखना पड़ता है ताकि लोग आ के उसे खरीद सके, इसलिए उनको बड़े बड़े शौपिंग माल्स की जरूरत पड़ती है और उनके शौपिंग माल्स भारत के माल्स की तरह नहीं हैं, उनके और हमारे शौपिंग माल्स में जमीन आसमान का अंतर है | उनके शौपिंग माल्स में मोटर कार से ले के सुई-धागे तक मिल जायेंगे आपको | और अगर ये एक जगह ना मिले तो उनकी जिंदगी चलनी मुश्किल है | तो उनका unorganised sector इतना बड़ा नहीं है, मौसम की अनुकूलता नहीं है, सब कुछ सब जगह नहीं होता, सब बाहर से मांगना पड़ता है तो उन्होंने बड़े-बड़े Departmental Store बनाये हैं, वालमार्ट आया, केयरफॉर आया, टेस्को आया | ये बाहर से समान मंगाते और उसे redistribute करते हैं | उनकी मजबूरी को हमारे यहाँ ख़ुशी-ख़ुशी लाया जा रहा है और हमारा राजा कह रहा है कि वालमार्ट को भारत में आना चाहिए , बड़े बड़े departmental store खुलने चाहिए, रिटेल मार्केटिंग में विदेशी निवेश होना चाहिए |  कैबिनेट की मंजूरी भी मिल गयी है और सरकार उसको वापस लेने को तैयार नहीं है | अदूरदर्शी राजा से उम्मीद भी क्या की जा सकती है |
वालमार्ट के समर्थक लोग अलग-अलग न्यूज़ चैनलों पर सरकारी भोपू बन के तर्क दे रहे हैं,  तर्क क्या हैं कि जब ये कंपनियां आएँगी तो ये किसानों से सीधा अनाज खरीदेंगे, किसानों को लाभ होगा, बिचौलिए ख़त्म हो जायेंगे, उपभोक्ताओं को भी फायदा होगा, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और अक्सर इस देश के पढ़े लिखे लोग हैं वो इस बात को मानते हैं कि ये ठीक रास्ता है, WTO पर जब हमारे सरकार ने हस्ताक्षर किया था तब भी यही कहा था, यही तर्क दिए गए थे | वालमार्ट इतनी बड़ी कंपनी है कि उसकी सालाना आय 48 देशों की GDP से ज्यादे है, वालमार्ट का total turnover है वो 400 बिलियन डॉलर का है जो कि भारत के अन्दर जितने व्यापार है उसके बराबर है, एक कंपनी का ये हाल है | वालमार्ट अमेरिका की कंपनी है और उनको अपने देश में एक disclosure statement देनी होती है, और अपने disclosure statement में वालमार्ट ने कहा है कि पिछले पाँच साल में उसने भारत के अन्दर 70 करोड़ रूपये खर्च किया है, खर्च क्यों किया है ? तो भारतीयों को educate करने के लिए, समझाने के लिए | मतलब आप समझे कि नहीं ? ये जो टेलीविजन पर और अख़बारों में भोंपू लोग बैठे हैं उन जैसे लोगों के लिए, और सरकार को educate नहीं करेगी तो उसका प्रोपोजल तो पास होगा ही नहीं तो |  बाकी कंपनियों का खर्च कितना है ये मालूम नहीं है क्योंकि उनका disclosure statement नहीं आया है | और देखिये सरकार का पेंडुलम घिसक के इनके पक्ष में आ गया है, इसीलिए देखिये, सरकार कैसे अकड़ के बोल रही है कि “ये वापस नहीं होगा” | 
कहा जा रहा है कि  इससे अपव्यय कम होगा। यह भी कहा गया है कि इससे रोजगार बढ़ेंगे और किसानों को उनकी फसल की बेहतर कीमत मिल सकेगी। हालांकि ये तर्क संदेहास्पद हैं और सूक्ष्म परीक्षण पर शायद ही खरे उतर पाएं। इस विवाद से परे यह पूछा जाना चाहिए कि ऐसे मल्टी-ब्रांड रिटेल क्या उत्पादक (चाहे किसान हों या निर्माता) से उपभोक्ता के बीच होने वाले वितरण-मूल्य को कम करेगा? मार्केटिंग की भाषा में इसे ‘चैनल कॉस्ट’ कहा जाता है। आम आदमी की भाषा में यह परिवहन/ संग्रह/ वित्तीय प्रबंधन/ विक्रय पर होने वाला वह खर्च है, जो उत्पादन बिंदु और उपभोक्ता को की गई अंतिम बिक्री के बीच किया जाता है। यह आर्थिक कार्यकुशलता का मुख्य मापदंड है, जिस पर हमें गौर करना चाहिए। यह सवाल ही तय करेगा कि मल्टी-ब्रांड रिटेल में एफडीआई न्यायोचित है या नहीं। भारत की थोक और खुदरा व्यापार व्यवस्था की तुलना में वालमार्ट और टेस्को जैसे मल्टी-ब्रांड रिटेलर्स उपभोक्ता को मिलने वाले मूल्य में तत्काल काफी बढ़ोतरी कर देंगे। इस बात को साबित करने के लिए हमारे पास कई प्रमाण हैं। उपलब्ध तथ्यों और तुलनात्मक अध्ययन से इसे आसानी से दिखाया जा सकता है। मूल्यों में होने वाली वृद्धि का यह प्रतिशत छोटा नहीं है। भारत के थोक और खुदरा व्यापार में होने वाले ‘मार्क-अप्स’ (क्रय-मूल्य और विक्रय-मूल्य के बीच का अंतर) की तुलना में, मल्टी-ब्रांड रिटेल में ‘मार्क-अप्स’ की गुंजाइश दो गुना से लेकर नौ गुना तक होती है। यह ‘मार्क-अप्स’ उनकी व्यापार-संरचना में निहित होता है, जिसका भुगतान पश्चिमी देशों में आम उपभोक्ता अपनी रोजमर्रा की खरीद में करते हैं। आइए जरा रोजमर्रा के काम में आने वाले पदार्थो के ऐसे चार वर्गों के ‘चैनल कॉस्ट’ या खर्च की तुलना करें, जो मल्टी-ब्रांड रिटेल के जरिये उपलब्ध होंगे।
पहला वर्ग है उपभोक्ता वस्तुओं का- इस मामले में भारत में वितरक व थोक व्यापारी का मार्जिन चार से आठ प्रतिशत के बीच होता है, और खुदरा व्यापारी का मार्जिन होता है आठ प्रतिशत से 14 प्रतिशत तक। यह मार्जिन उत्पादन मूल्य पर जोड़ा जाता है। कंपनी की उत्पादन क्षमता, बाजार पर उसकी पकड़, माल की किस्म आदि पर मार्जिन का प्रतिशत निर्भर करता है। इसलिए भारत में वितरण श्रृंखला के ऊपर आने वाली कुल ‘चैनल कॉस्ट’ 12 से 22 प्रतिशत के मध्य होती है। अमेरिका और यूरोप में ‘सेफवेज’, ‘क्रोगेर्स’ और ‘टेस्को’ जैसी कंपनियां इस श्रेणी के पदार्थो के बुनियादी मूल्य पर माल की किस्म, मात्र, मांग और उपलब्धता को देखते हुए तकरीबन 40 प्रतिशत का ‘मार्क-अप्स’ लगाती हैं। यह चैनल ‘मार्क-अप्स’ भारतीय चैनल/ रिटेल कीमतों की तुलना में दो से तीन गुना ज्यादा है। इन कंपनियों द्वारा ग्राहकों को लुभाने के लिए समय-समय पर घोषित ‘सेल’ और ‘लॉस लीडर प्रोमोशन’ से हमें गुमराह नहीं होना चाहिए।
दूसरा वर्ग है वस्त्र का-
 भारत के कपड़ा व्यवसाय में संयुक्त रूप से थोक व खुदरा का मार्जिन, मिल कीमत के ऊपर 35 से 40 प्रतिशत के बीच होता है। रेडीमेड कपड़ों के व्यवसाय में किसी ब्रांडेड रिटेल दुकान का मार्जिन शायद ही कभी लागत के 30 प्रतिशत से ज्यादा होता है। अब जरा इसकी तुलना ‘मेसीस’ या ‘मार्क्स ऐंड स्पेंसर’ स्टोर से करते हैं। ये रिटेलर अक्सर कपड़ों के खरीद मूल्य पर दो से 4.5 गुना ‘मार्क-अप‘ लगाते हैं। उसके बाद वे 15 से 30 प्रतिशत की छूट ‘सेल’ ऑफर पर देते हैं। ‘सेल’ पर मिलने वाली कीमत के बावजूद इन रिटेलर्स द्वारा लगाया ‘मार्क-अप’ कम-से-कम दो गुना अधिक होता है। इसीलिए नियमत: उनके ‘मार्क-अप्स’ भारतीय रिटेलर्स की तुलना में पांच से नौ गुना ज्यादा होते हैं।
तीसरा, दवा और चिकित्सा सामग्री- 
भारत में दवा की दुकानें और औषधि-विक्रेता एक व्यापारिक संस्था के रूप में काफी व्यवस्थित हैं, पर सप्लाई साइड बिखरा पड़ा है, जिससे उन्हें रिटेल में बेहतर मार्जिन मिल जाता है। बावजूद इसके, भारत में एक रिटेल दवा विक्रेता का मार्जिन 20 प्रतिशत तक होता है। इसमें अगर हम वितरक, थोक व्यापारी का 10 प्रतिशत मार्जिन और सीएंडएफ एजेंट का चार प्रतिशत जोड़ दें, तो कुल ‘चैनल कॉस्ट’ लागत का 34 प्रतिशत बनती है। अब इसकी तुलना अमेरिका के ‘वालग्रीन‘ या ‘सीवीएस’ या फिर ब्रिटेन के ‘बूट्स’ से कीजिए। ये रिटेलर्स चिकित्सा-सामग्रियों और दवाइयों के दामों में दो या तीन गुना ‘मार्क-अप’ कर देते हैं और फिर कुछ  मद पर ‘सेल’ ऑफर चला देते हैं। जहां तक ‘चैनल कॉस्ट’ का सवाल है, भारतीय दवा-विक्रेताओं की तुलना में इन बड़े रिटेलर्स की कीमतों में कम-से-कम छह गुना का ‘मार्क-अप’ रहता है। 
चौथा है, किचनवेयर- 
भारतीय ‘चैनल कॉस्ट’ या खर्च इस श्रेणी में कम है। भारत में प्रेशर कुकर, कुकवेयर में वितरक, रिटेलर का संयुक्त मार्जिन 30 प्रतिशत से कम है, जिसमें से रिटेलर सिर्फ 10 से 15 प्रतिशत ही रखता है। इसी श्रेणी के उत्पादों के लिए ‘वालमार्ट’, ‘ब्लूमगडेल्स’ और ‘सीयर्स’ जैसे रिटेलर्स अमेरिका में लागत खर्च पर नियमत: 100 से 200 प्रतिशत का ‘मार्क-अप’ करते हैं। यहां तक कि ‘सेल’ पर भी कम-से-कम भारत के मुकाबले चैनल मूल्यों में पांच गुना का ‘मार्क-अप’ रहता है।
ये सभी साक्ष्य दर्शाते हैं कि वर्षों में विकसित हुई भारतीय वितरण व्यवस्था, विश्व में सबसे सक्षम और किफायती है। माना कि हमारे बाजार यूरोप, अमेरिका व जापान के ‘मॉल्स’ की तरह लुभावने नहीं, परंतु आम घरेलू महिलाओं के लिए वे बेहद उपयोगी हैं, और कम कमाई व ज्यादा महंगाई के बुरे वक्त में उनका बखूबी साथ निभाते हैं। रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रस्ताव इस संतुलन को बिगाड़ देगा। आपूर्ति श्रृंखला में निवेश और ‘बैकएंड लॉजिस्टिक्स’ की बातें सिर्फ ‘चैनल कॉस्ट’ के मुख्य विषय से ध्यान हटाने के लिए हैं। उद्योगों और विदेशी सरकारों के दबाव में आए बगैर हमारी सरकारी कमेटी को अपना पूरा ध्यान इस बात पर केंद्रित करना चाहिए कि हमारे देश के नागरिकों, उपभोक्ताओं के हित में क्या है। हमारे बाजार बेहद सक्षम हैं और लाखों छोटे व्यापारियों और उद्यमियों के हित से जुड़कर चलते हैं। इसमें हस्तक्षेप कर हमें मल्टी-ब्रांड रिटेल के पश्चिमी मायाजाल में नहीं फंसना चाहिए। 
आपने पढ़ा कि किस तरह पश्चिमी देशों में बड़े मल्टी-ब्रांड  रिटेलर्स, जैसे वालमार्ट, टेस्को और कार्रेफौर अपने सभी उत्पादों के दाम में कम से कम दोगुना ‘मार्क-अप’ करते हैं और भारत के रिटेल/होलसेल ‘मार्क-अप्स’ की तुलना में यह नौगुना से भी अधिक तक चला जाता है। सारांश यह है कि चैनल की सक्षमता इस बात से तय होनी चाहिए कि ‘मार्क-अप्स’ (जो दुकान चलाने के खर्च और चैनल द्वारा कमाए गए मुनाफे का कुल योग है) के साथ आम उपभोक्ता को कितना मूल्य अदा करना पड़ेगा। इसी मापदंड के आधार पर मैंने यह निष्कर्ष निकाला था कि थोक विक्रेता, वितरक, स्टॉकिस्ट और खुदरा विक्रेता से बनी भारतीय वितरण श्रंखला दुनिया में सबसे सक्षम और किफायती है।
ऐसा कैसे संभव है? मैं जानता हूं कि आप में से ऐसे लोग भी होंगे, जो इस निष्कर्ष को मानने से इनकार करेंगे। उनसे मेरा अनुरोध है कि वे जरा पश्चिमी व भारतीय खुदरा बाजार के स्वरूप के गणितीय तर्क की गहराई से पड़ताल करें। जिस किसी ने भी व्यावसायिक कार्यप्रणाली एवं नियमों को देखा-समझा है, वे बाजार की इस हकीकत से जरूर वाकिफ होंगे कि बाजार जितना ही संघटित होता है, वह उपभोक्ता को चयन का कम अधिकार देता है, और रिटेलर द्वारा उतना ही अधिक ‘मार्क-अप’ करने व कीमतों में वृद्धि करने की गुंजाइश रहती है। इसके उलट बाजार जितना बिखरा होता है और उपभोक्ता को चयन का अधिक विकल्प मिलता है, ‘मार्क-अप’ उतना ही कम होता जाता है, क्योंकि रिटेलर्स को प्रतिस्पर्धा व व्यापार में बने रहने के लिए कम से कम मूल्य रखने पड़ते हैं।
जब बड़े मल्टी-ब्रांड रिटेल बाजार में प्रवेश करते हैं, तो उनकी रणनीति प्रतिस्पर्धा को खत्म करने और बाजार पर अपनी मजबूत पकड़ बनाने की होती है। दो उदाहरणों पर गौर कीजिए। अमेरिका में रिटेल बाजार का आकार (खाद्य सेवा और ऑटोमोटिव को छोड़कर) वर्ष 2009 में तीन ट्रीलियन डॉलर आंका गया था। वालमार्ट ने 10 प्रतिशत की बाजार हिस्सेदारी (मार्केट शेयर) के साथ 300 से भी अधिक बिलियन डॉलर का कारोबार किया था। जाहिर है, लंबे समय में अजिर्त ऐसी संघटित शक्ति का इस्तेमाल आपूर्तिकर्ता या वितरक से कम कीमत पर चीजें खरीदने और उपभोक्ता को अधिक ‘मार्क-अप्स’ के साथ बेचने के लिए किया जाता है। वालमार्ट का उद्देश्य दूसरे रिटेलर्स से ज्यादा किफायती बनना है, पर उसका मुख्य लक्ष्य अपने शेयरधारकों को अधिकतम लाभ पहुंचाना है। (जिन लोगों को वालमार्ट के बारे में जानने की रुचि हो, वे बिल क्विन्न की किताब ‘

How Walmart Is Destroying America (And the World) : And What You Can Do about It

’ पढ़ सकते हैं) ब्रिटेन में इसी से मिलता-जुलता उदाहरण टेस्को का है। पिछले वर्ष इस कंपनी ने 61 बिलियन पाउंड (यानी 99 बिलियन अमेरिकी डॉलर) का व्यापार किया था, और विकीपीडिया के अनुसार, ब्रिटेन किराना दुकान बाजार में इसकी हिस्सेदारी (मार्केट शेयर) 30 प्रतिशत है। इस स्तर का एकाधिकार रिटेल की दुनिया में अनोखा है और टेस्को को आपूर्तिकर्ता व उपभोक्ता, दोनों के ऊपर असाधारण शक्ति प्रदान कर देता है। ब्रिटेन में किराने का सामान खरीदने वालों के लिए घर के समीप ज्यादा से ज्यादा दो या तीन रिटेलर (टेस्को, सैन्सबरी या शायद अल्डी) का विकल्प होता है। इसका अर्थ है कि प्रोमोशनल ऑफर के बावजूद निर्धारित कीमतों में अधिमूल्य (प्रीमियम) शामिल रहता है और उपभोक्ता की खरीदारी पर रिटेलर की पकड़ मजबूत बनी रहती है। उत्पादक के ऊपर भी उनकी जबर्दस्त पकड़ होती है। अब इसकी तुलना जरा भारत से कीजिए। हमारे पड़ोस में दर्जनों छोटे रिटेलर्स होते हैं, जिनमें हमारे रुपये को पाने की होड़ लगी रहती है। यहां जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा है। लिहाजा, ‘मार्क-अप्स’ व कीमतें मजबूरन कम रहती हैं। हमारी बाजार संरचना लगभग परिपूर्ण है, जिसमें हजारों उत्पादक लाखों रिटेलर्स को माल उपलब्ध कराते हैं, जो आगे करोड़ों उपभोक्ताओं को अपनी सेवाएं देते हैं। बाजार में किसी के पास सचमुच इतना असर या जोर नहीं कि वह अधिक ‘मार्क-अप्स’ लगा सके। यह जमीन से जुड़ी सच्चाई है, जो लाखों छोटे व्यवसायों की उद्यमशीलता और ऊर्जा से पैदा हुई है। इसके संगठन में सरकार ने कोई भूमिका नहीं निभाई है। यदि बड़े मल्टी-ब्रांड रिटेल को भारत में प्रवेश की अनुमति दी जाती है, तो उसका बुरा परिणाम होगा। किसी इलाके में एक विशाल रिटेल स्टोर का उद्घाटन धूमधाम के साथ किया जाएगा। फिर बहुत सारे ‘प्रोमोशनल ऑफर’ दिए जाएंगे और कई जरूरी सामान अनेक दिनों तक मूल कीमत से भी कम में बेचे जाएंगे। (वालमार्ट की भाषा में इसे ‘स्टॉम्प द कॉम्प’ कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है प्रतिस्पर्धा को मिटा देना)। जाहिर है, इस छूट से आकर्षित होकर लोग भारी संख्या में वहां उमड़ पड़ेंगे। ऐसे में, छोटे रिटेलर व्यापार-घाटे को बहुत समय तक नहीं उठा पाएंगे। इस झटके की वजह से उनमें से ज्यादातर दुकानें बंद हो जाएंगी। ऐसा निरपवाद रूप से हर जगह हुआ है। प्रतिस्पर्धा पूरी तरह ध्वस्त हो जाने पर आपूर्तिकर्ताओं व उपभोक्ताओं पर बड़े रिटेलर की पकड़ कस जाती है। उसके बाद बाजार पर नियंत्रण करके वे अधिकतम मुनाफे के लिए धीरे-धीरे ‘मार्क-अप्स’ बढ़ाते जाते हैं। ऐसे में, आखिर क्यों भारत सरकार के प्रमुख वित्तीय सलाहकार के नेतृत्व में बनी कमिटी ने मल्टी-ब्रांड रिटेल में एफडीआई की सिफारिश की है? फिर निवेश के लिए सुझाए गए कुछ मानदंड भी काफी दुरूह हैं। उदाहरण के लिए, कमिटी ने न्यूनतम एफडीआई निवेश 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर तय किया है। यह ओलंपिक में किसी हेवीवेट लिफ्टर को 10 किलोग्राम वजन उठाने के लिए कहने जैसा है। मैं उन वरिष्ठ बुद्धिजीवियों की कद्र करता हूं, जिन्होंने इस पहलू पर गौर किया है। मैं यह सलाह देने का साहस अवश्य करूंगा कि इस संबंध में बनी नीति का लक्ष्य देश की विशाल आबादी का हित होना चाहिए। नीति-निर्धारकों को पश्चिमी देशों की सरकारों को खुश करने की जल्दबाजी नहीं दिखानी चाहिए, जो भारतीय रिटेल बाजार को खुलवाने के लिए निरंतर दबाव बना रहे हैं। मल्टी-ब्रांड रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति भारतीय खुदरा क्षेत्र व उन करोड़ों परिवारों का अहित करेगा, जो अपने गुजारे के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वर्ष 2008 में आई विश्वव्यापी आर्थिक मंदी से भारत बच गया, क्योंकि बैंकिंग उद्योग जगत जोखिम से अनजान था। ठीक वैसी ही स्थिति रिटेल में है। हमें भारत में पश्चिमी रिटेल की बीमारू संरचना को लाने का प्रयास नहीं करना चाहिए, जो भारतीय उपभोक्ताओं को आने वाले समय में अपना गुलाम बना लेगी।    

भारतीय संसदीय लोकतंत्र प्रणाली - श्री राजीव दीक्षित जी

अंग्रेजों का शासन जब पूरी दुनिया में चल रहा था तो अँग्रेज़ों ने गुलाम देशों का तीन तरह का ग्रुप बनाया था | एक ग्रुप था कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलॅंड का, ये कहलाती थी Self Governing Colonies, मतलब ये देश कुछ-कुछ अपने हित के क़ानून भी बना सकते थे, लेकिन ज्यादा कानून अंग्रेज ही बनाते थे, दूसरा ग्रुप था, सिलोन (श्रीलंका), मौरीसस, सूरीनाम, वेस्ट इंडियन देशों, आदि का, ये कहलाती थी, Crown Colonies,  और तीसरे ग्रुप मे भारत ( पाकिस्तान और बांग्लादेश ) था, ये कहलाती थी Depending Colonies, ये गुलामी का सबसे खराब सिस्टम था, इसमे ये होता था कि हमको अपने लिए, अपने देश के लिए, अपनी व्यवस्थाओं के लिए कुछ भी करने का अधिकार ही नहीं था, कोई कानून नहीं बना सकते थे हम, सब कुछ अँग्रेज़ों के हाथ मे था, मतलब हम पूरी तरह अँग्रेज़ों के Dependent थे |  अंग्रेजों ने अपनी सरकार 1760 में स्थापित की थी भारत में, लेकिन वो कंपनी की सरकार थी, अंग्रेजों की सरकार नहीं थी वो, लेकिन छोटे-मोटे कानून उन्होंने उसी समय से बनाना शुरू कर दिया था और उस समय से लेकर 1947 तक अंग्रेजों ने जो 34735 कानून बनाये थे | उन्होंने जो व्यवस्था बनाई थी हमें गुलाम बनाने के लिए, हमारे ऊपर शासन करने के लिए, दुर्भाग्य से आज भी हमारे देश में सब के सब कानून, सब की सब व्यवस्थाएं वैसे के वैसे ही चल रहीं हैं जैसे अंग्रेजों के समय चला करती थीं |  
जब हमारे देश में अंग्रेजों का शासन था तो हमारे जितने भी क्रन्तिकारी थे उन सबका मानना था कि भारत की गरीबी, भुखमरी और बेकारी तभी ख़त्म होगी जब अंग्रेज यहाँ से जायेंगे और हम हमारी व्यवस्था लायेंगे, हम उन सब तंत्रों को उखाड़ फेकेंगे जिससे गरीबी, बेकारी, भुखमरी पैदा हो रही है | लेकिन हुआ क्या ? हमारे देश में आज भी वही व्यवस्था चल रही है जो अंग्रेजों ने गरीबी, बेकारी और भुखमरी पैदा करने के लिए चलाया था | क्रांतिकारियों का सपना बस सपना बन के रह गया लगता है | भारत के लोग व्यवस्था की खामियों के बारे में बात नहीं करते हैं बल्कि अपनी जनसँख्या को गाली देते हैं, जब कि ये कोई समस्या नहीं है, समस्या वहां से शुरू होती जब हम अपने संसाधनों का बटवारा अपने लोगों में न्यायपूर्ण तरीके से नहीं कर पाते हैं | जिस जनसँख्या के लिए समान बटवारा होना चाहिए जैसा कि हमारे संविधान में लिखा हुआ है, वो नहीं हो पाया है हमारे देश में | यूरोप और अमेरिका में संसाधनों का समान बटवारा आप पाएंगे लेकिन हमारे यहाँ नहीं | यूरोप और अमेरिका में भी भारत की ही तरह टैक्स लिया जाता है लेकिन वहां जब टैक्स को खर्च किया जाता है तो वो Per capita Distribution के हिसाब से होता है | Collection अगर per capita के हिसाब से है तो distribution भी per capita के हिसाब से है लेकिन भारत में collection तो per capita के हिसाब से है लेकिन distribution, per capita के हिसाब से नहीं है | अगर ये distribution, per capita के हिसाब से होता तो छत्तीसगढ़ में, बिहार में, झारखण्ड में, ओड़िसा में इतनी भयंकर गरीबी नहीं होती | तो अपने यहाँ समस्या जनसँख्या से नहीं उस व्यवस्था से है जो ऐसे हालात पैदा करती है और हमारी व्यवस्था कैसी निकम्मी और नकारा है उसका ताजा उदहारण मैं आपको देता हूँ | आप पजाब जाएँ,हरियाणा जाएँ तो आप देखेंगे कि FCI का जो गोदाम होता है वहां अनाज इतना ज्यादा होता है कि उनको रखने की जगह नहीं होती है  बोरे के बोरे अनाज खुले में पड़े होते है और उसको या तो चूहे खाते रहते हैं या सड़ रहे होते हैं | आपको याद होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि” इन अनाजों को उन गरीबों के बीच क्यों नहीं बाँट दिया जा रहा है जो भूख से मर रहे हैं” लेकिन वो आज तक नहीं हो पाया | ऐसा क्यों हुआ ? क्योंकि हमारे पास वैसा कोई distribution system नहीं है और साथ ही साथ हमारे देश के नेता नहीं चाहते कि गरीबी ख़त्म हो क्योंकि गरीबी और गरीब ख़त्म हो जायेंगे तो इन नेताओं का झंडा कौन ढोयेगा, नारे कौन लगाएगा, उनकी सभाओं में कौन जायेगा ? इसलिए इन नेताओं के लिए सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी कोई मायने नहीं रखता |
भारत सरकार की विफलता का एक दूसरा उदहारण देता हूँ, भारत की सरकार ने 1952 से एक पंचवार्षिक योजना शुरू की जो औसतन 10 लाख करोड़ का होता है | अभी तक हमारे देश में ग्यारह पंचवार्षिक योजनायें लागू हो चूकी हैं, मतलब अभी तक हमारी सरकार 110 लाख करोड़ रूपये खर्च कर चूकी है और गरीबी, बेकारी, भुखमरी रुकने का नाम ही नहीं ले रही है | अंग्रेज जब थे तो ऐसी कोई योजना नहीं थी इस देश में क्योंकि वो विकास पर कुछ भी खर्च नहीं करते थे और तब हमारी गरीबी नियंत्रण में थी लेकिन जब से हमने पंचवार्षिक योजना शुरू की हमारी गरीबी भयंकर रूप से बढ़ने लगी और बढती ही जा रही है कहीं रुकने का नाम ही नहीं ले रही है | अगर भारत सरकार उन पैसों को (जिसे उसने इन पंचवार्षिक योजनायों पर खर्च किया) सीधा हमारे लोगों को बाँट देती तो आज एक-एक भारतीय के पास नौ-साढ़े नौ लाख रूपये तो होते ही (मैं एक आदमी की बात कर रहा हूँ एक परिवार की नहीं) और सभी भारतीय कम से कम लखपति तो होते ही|
भारत की समस्या यहाँ की जनसँख्या नहीं है, यहाँ के लोग नहीं हैं, यहाँ की जातियां नहीं हैं, यहाँ के धर्म नहीं हैं बल्कि हमारा तंत्र है जिसको हम सही से नहीं चला पाते या कहे कि हमको चलाना नहीं आता | हमने जो व्यवस्था अपनाई है वो दुर्भाग्य से अंग्रेजों का है और अंग्रेजों ने ये व्यवस्था अपनाई थी भारत में गरीबी, बेकारी, भुखमरी पैदा करने के लिए | आप कहेंगे कि अंग्रेजों ने कौन सी व्यवस्था हमको दी | जिसको हम संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली (Parliamentary Democratic System)  कहते हैं वो अंग्रेजों की देन हैं हमें | इसी तंत्र को इंग्लैंड में वेस्टमिन्स्टर सिस्टम कहते हैं, इसी तंत्र को गाँधी जी बाँझ और वैश्या कहा करते थे (इसका अर्थ तो आप समझ गए होंगे) | और यूरोप का ये लोकतंत्र निकला कहाँ से है ? तो वो निकला है डाइनिंग टेबल से, जी हाँ खाने के मेज से यूरोप का लोकतंत्र निकला है | राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी अगर इस पत्र को पढ़ रहे होंगे तो तुरत समझ जायेंगे, क्योंकि हमारे यहाँ राजनीति शास्त्र में ये पढाया जाता है और 100 नंबर के प्रश्नपत्र  में इस पर बीस नंबर का सवाल आता है कि “बताइए कि यूरोप का प्रजातंत्र कहाँ से निकला ? विस्तार से वर्णन कीजिये ” | तो उसका  उत्तर है —-यूरोप का प्रजातंत्र डाइनिंग टेबल से निकला है, खाने के मेज से यूरोप के प्रजातंत्र की शुरुआत हुई है | अब खाने की मेज तो निजी जीवन का हिस्सा है और लोकतंत्र सार्वजानिक जीवन का हिस्सा है, तो निजी जीवन में जो कुछ आप डाइनिंग टेबल पर करते हैं, वही आप सार्वजानिक जीवन में करने लगे तो उसी को संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली कहते हैं, दुर्भाग्य से इसी संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली को हमने अपना लिया है, हमने इसका आविष्कार अपने देश में नहीं किया और अंग्रेजों ने ये जो संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली हमें दी है वो कहीं से भी न संसदीय है और न लोकतांत्रिक है बल्कि वो 101% Aristocratic System है | आप कहेंगे कि वो कैसे ? मैं बताता हूँ | 
भारत के 121 करोड़ लोगों का फैसला एक आदमी करे तो वो संसदीय होगा या लोकतांत्रिक होगा ? 121 करोड़ लोगों का फैसला एक आदमी करे, जिसे हम वित्तमंत्री कहते हैं तो वो व्यवस्था लोकतांत्रिक होगा क्या ? और गलती से वो बिका हुआ हो या मीरजाफर हो तो वो लोकतांत्रिक होगा क्या ? 121 करोड़ लोगों का फैसला 121 करोड़ लोग करें तो वो आदर्श होगा, नहीं कर सकते तो 60 करोड़ लोग करें, नहीं तो 30 करोड़ लोग करें और कुछ नहीं तो एक प्रतिशत लोग तो करें | यहाँ तो वो भी नहीं है | एक व्यक्ति भारत में तय करता है कि कहाँ टैक्स लगना चाहिए, कहाँ नहीं लगना चाहिए और वो चीज संसद में पेश हो जाती है और बाकी 545 लोग जो लोकसभा में बैठे हैं और 250 लोग जो राज्य सभा में बैठे हैं वो सिर्फ बहस इस बात पर करते हैं कि कहाँ कटौती होनी चाहिए, कहाँ बढ़नी चाहिए, ये नहीं कहते कि इसको पूरा वापस ले लो क्योंकि इनको ये अधिकार नहीं है, तो ये व्यवस्था लोकतांत्रिक है क्या ? 
एक दूसरा उदहारण देता हूँ आपको | आप अपने संसदीय क्षेत्र या विधानसभा क्षेत्र को लीजिये, मान लीजिये कि वहाँ पाँच लाख मतदाता हैं और चुनाव में खड़े होने वाले प्रत्याशियों की संख्या दस है और हमारे देश में औसत रूप से मतदान का प्रतिशत 50 (%) ही रहता है, मतलब ढाई लाख लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग कर मतदान किया | अब ये ढाई लाख मत इन दस प्रत्याशियों में बटा तो किसी को 75 हजार वोट तो किसी को 65 हजार वोट तो किसी को 50 हजार वोट और किसी को कुछ, किसी को कुछ वोट मिला | और जब परिणाम आया तो 75 हजार वोट पाने वाला चुनाव जीत जाता है, उस क्षेत्र में, जहाँ मतदाताओं की संख्या पाँच लाख है | मतलब कि जीतने वाला प्रत्याशी पाँच लाख मतदाताओं के क्षेत्र में 15 प्रतिशत वोट पाकर उस संसद या विधानसभा में पहुँच जाता है जहाँ बहुमत 51 % पर तय होता है | आप समझ रहे हैं न, मैं क्या कह रहा हूँ ?  15 प्रतिशत वोट पाकर कोई प्रत्याशी उस संसद या विधानसभा में पहुँच जाता है जहाँ बहुमत 51 % पर तय होती है, मतलब ये चुनाव पूरा का पूरा गैरकानूनी हुआ कि नहीं ?
और उस संसद और विधानसभा के अन्दर का हाल भी जान लीजिये | संसद में क्या होता है कि कोई विधेयक अगर पारित करना हो तो एक नियम है जिसको ” कोरम पूरा होना कहते हैं ” मतलब कुल सदस्यों का कम से कम 10 प्रतिशत सदन में उपस्थित होना चाहिए यानि 54 सदस्य कम से कम होने चाहिए एक विधयक को पास करने के लिए लेकिन कई बार होता क्या है कि सदन में 20 -25 सदस्य ही उपस्थित होते हैं तो इससे तो कोरम भी पूरा नहीं होता तो इस स्थिति के लिए भी एक नियम है, इसको Emergency Rule कहा जाता है, इसमें होता ये है कि उस समय-विशेष में जितने सदस्य सदन में उपस्थित हैं उनका आधा अगर उस विधेयक के पक्ष में मतदान कर दे तो कानून बन जायेगा | आप इसी को लोकतंत्र कहेंगे क्या ? मैं कोरम को ही लेता हूँ और आपसे पूछता हूँ कि अगर 27 -28 लोग मिलकर कोई विधेयक पास करा लेते हैं और 121 करोड़ लोगों के लिए कानून बन जाता है तो वो कहीं से भी लोकतांत्रिक होगा क्या ?  तो हम हमारे देश में जो लोकतांत्रिक व्यवस्था चला रहे हैं वो कहीं से भी लोकतांत्रिक नहीं है और लोकतांत्रिक कैसे नहीं है उसका एक उदहारण और देता हूँ | जब चुनाव होते हैं तो हम लोग मतदान करते हैं जिसमे किसी पार्टी के प्रत्याशी को चुनते हैं यानि दुसरे को हराते हैं और जब ये लोग संसद में पहुँचते हैं तो ऐसे लोगों से गठबंधन कर लेते हैं जिसको हमने नकार दिया है | पिछले संसद में आपने देखा होगा कि कम्युनिस्ट पार्टी ने उस कांग्रेस को समर्थन देकर सरकार बनाया जिसका विरोध करके उसने लोगों का समर्थन पाया था, चाहे वो बंगाल हो, केरल हो या पूर्वोत्तर के विभिन्न राज्य | ये उस राज्य/क्षेत्र की जनता का अपमान हुआ कि नहीं?| ऐसा ही अटल बिहारी वाजपेयी के सरकार के समय हुआ था | इसी को आप लोकतंत्र कहेंगे क्या ? ये तो मजाक हो रहा है इस देश में, लोकतंत्र के नाम पर | 
ये व्यवस्था कहीं से भी लोकतांत्रिक नहीं है ये दरअसल अंग्रेजों का बनाया हुआ गुलामगिरी वाला Aristocratic System है जिसमे 4 -5 लोगों को निर्णय लेने का अधिकार है बाकी तो उसे सिर्फ follow करते हैं | उनको प्रश्न पूछने का भी अधिकार नहीं है| प्रधानमंत्री ने कोई फैसला कर लिया तो उसे पूरे मंत्रिमंडल को मानना ही पड़ेगा, चाहे वो कितना ही गलत क्यों ना हो, क्योंकि system में लिखा हुआ है कि “प्रधानमंत्री कभी गलत नहीं होता, जो फैसला वो करेंगे उसको कैबिनेट को मानना ही पड़ेगा”, अगर आप नहीं मान सकते तो कैबिनेट से इस्तीफा दीजिये और बाहर जाइये | यही लोकतंत्र है क्या? अभी आपने देखा कि कैसे वालमार्ट को बुलाने के लिए इन्होने कमर कस लिया है, इस पर ना राज्यों से चर्चा, न विपक्ष से सलाह और आम आदमी की इस देश में इज्ज़त क्या है वो तो इसी तरह मरने के लिए ही पैदा हुए है, वो तो इससे बाहर होते ही है,हमेशा की तरह, इसी को  लोकतंत्र कहेंगे क्या ?
अपने संसद में जब बहस होती है तो आप जरा ध्यान दीजियेगा | हमारे जो सांसद हैं वो किसी ड्राफ्ट पर बहस करते हैं, वो ड्राफ्ट बिल कहलाता है उसे हिंदी में विधेयक कहते हैं | तो वो जिस बिल पर बहस करते हैं उसकी ड्राफ्टिंग सेक्रेटरी करता है | संसद में सेक्रेटरी होता है वो बिल की ड्राफ्टिंग करता है, इसके पास सेक्रेटरी की एक टीम होती है | जेनरल सेक्रेटरी जो होता है उसके पास ज्वाइंट सेक्रेटरी स्तर के कई अधिकारी होते हैं, उनसे वो बिल की ड्राफ्टिंग करवाता है और ये सभी के सभी IAS ऑफिसर होते हैं | एक बार मैंने एक सांसद महोदय से पूछा कि आप मेरे सांसद हैं, मेरे प्रतिनिधि हैं, आप बहस करते हैं, तो जिस बात पर आप बहस करते हैं उसकी ड्राफ्टिंग खुद क्यों नहीं करते ? क्या आप जानते हैं कि हमारे सांसद जिस बिल पर बहस करते हैं उसकी ड्राफ्टिंग वो खुद नहीं कर सकते, वो सिर्फ बहस करते हैं और बहस के दौरान उन्हें लगे कि xyz point गलत है या यहाँ कौमा छुटा है तो फिर उन्हें (सांसद/मंत्री को) एक आवेदन देना पड़ेगा, फिर बिल सेक्रेटरी के पास वापस जायेगा, सेक्रेटरी उस पर विचार करेगा, ज्वाइंट सेक्रेटरी की बैठक बुलाएगा, हो सकता है कि वो बैठक तीन महीने तक चलता रहे, नोटिफिकेशन जारी करेगा और तब कौमा बदलेगा या कोई त्रुटि होगी उसे ठीक किया जायेगा, उसके बाद ये बिल वापस सदन में आएगा | कितना समय लगा ? तीन महीना और वो भी एक कौमा बदलने में | अगर सांसदों को ये अधिकार होता तो वो क्या करते ? वो कलम निकालते और तुरत उस कौमा को खुद डाल देते या xyz point गलत है उसे बदल देते | लेकिन वो ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें ये अधिकार ही नहीं है, क्योंकि नियम नहीं है और ये नियम अंग्रेजों ने बनाया था | जब हमारा प्रतिनिधि हमारे लिए ड्राफ्ट नहीं बना सकता, जिनका प्रतिनिधित्व वो कर रहा है उनके हित का ख्याल कर के वो ड्राफ्ट नहीं बना सकता तो फिर वो हमारा प्रतिनिधि हुआ कैसे ? सिर्फ वो बहस कर सकता है, कोई लाउडस्पीकर थोड़े ही भेजा है हमने ? 
ये तो था संसद और हमारे प्रतिनिधियों का हाल अब उसके नीचे का हाल भी देख लीजिये | हमारे यहाँ गाँव में सबसे छोटा अधिकारी होता है “पटवारी” (अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नाम से ये जाने जाते हैं) तो आप देखिये कि ये सिस्टम क्या है ? हमारे यहाँ के पटवारी का जवाबदेही/ accountability किसके प्रति है तो वो अपने से ऊपर के अधिकारी के प्रति जवाबदेह है, वो ऊपर का अधिकारी BDO हो सकता है, SDO हो सकता है या SDM हो सकता है  (अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नाम हैं इनका) और इन अधिकारियों की जवाबदेही जिलाधिकारी के प्रति होती है, जिलाधिकारी की जवाबदेही कमिश्नर के प्रति होती है, कमिश्नर की जवाबदेही राज्य के चीफ सेक्रेटरी के प्रति होती है, चीफ सेक्रेटरी की जवाबदेही कैबिनेट सेक्रेटरी के प्रति और कैबिनेट सेक्रेटरी की जवाबदेही किसी के प्रति नहीं, बस किस्सा ख़त्म | क्या आप जानते हैं कि भारत का कैबिनेट सेक्रेटरी किसी के प्रति जवाबदेह नहीं होता, क्योंकि अंग्रेज जो कानून बना के गए हैं उसमे यही कहा गया है | अब आप देखिये कि मेरा जो पटवारी है वो BDO /SDO /SDM को खुश करने में लगा रहता है , BDO /SDO /SDM जो हैं वो जिलाधिकारी को खुश करने में लगा रहता है, जिलाधिकारी जो है वो कमिश्नर को खुश करने में लगा रहता है, कमिश्नर चीफ सेक्रेटरी को खुश करने में लगा रहता है, चीफ सेक्रेटरी जो है वो कैबिनेट सेक्रेटरी को खुश करने में लगा रहता है | इन सब को अपने से ऊपर के अधिकारी को खुश करने की चिंता है क्योंकि वो उनकी CR ख़राब कर सकता है, Promotion रुक जायेगा, तबादला हो जायेगा | उसको गाँव के लोगों की कोई चिंता नहीं है, गाँव के लोगों के ऊपर अत्याचार करेगा, घूस लेगा, रिश्वत लेगा, क्योंकि वो जानता है कि गाँव वालों के हाथ में कुछ नहीं है, ना वो मेरा CR लिख सकते हैं, ना promotion दे सकते हैं, ना मेरा तबादला कर सकते हैं | सब एक दुसरे को खुश करने में लगे रहते हैं और ये सब मेरे और आपके पैसे से पगार (salary) पा रहे हैं, हमको खुश नहीं रखेंगे, हम और आप उनके पगार के लिए पैसा दे रहे हैं टैक्स के रूप में  | क्यों नहीं खुश रखेंगे ? क्योंकि उनकी जवाबदेही अपने उच्च अधिकारियों के प्रति है ना कि हमारे प्रति, क्योंकि कानून ऐसा है और इसीलिए भ्रष्टाचार है वहां, आप कैसे रोकेंगे भ्रष्टाचार को ? भ्रष्टाचार तो होगा ही |
हमारे यहाँ जो न्याय व्यवस्था है वो IPC, CrPC, CPC पर आधारित है जो यूरोप से लिया गया है और ये प्लेटो के laws पुस्तक पर आधारित है जिसको हमने बिना अक्ल लगाये ले लिया है | आप देखिएगा कि भारत में जो न्याय व्यवस्था चलती है उसमे पैसे वालों को ही न्याय मिलता है | हमारे पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे.अब्दुल कलम साहब जब राष्ट्रपति थे तो उन्होंने भारत के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखा था और पूछा था कि “क्या कारण है कि आजादी के बाद के 50 सालों में गरीबों को ही फाँसी हो रही है, किसी अमीर को फाँसी नहीं हुई जबकि उन्होंने गरीबों से ज्यादा अपराध किये हैं ” अब मुख्य न्यायाधीश साहब ने जवाब दिया कि नहीं मुझे नहीं मालूम लेकिन मेरे पास जवाब है | जवाब ये है कि “हमने कानून और न्याय व्यवस्था अंग्रेजों से ली है और उनके यहाँ न्याय तो पैसे वालों को ही मिलता है, ताकतवर को मिलता है, गरीब को तो न्याय लेने का अधिकार ही नहीं है क्योंकि उनके दार्शनिक प्लेटो के अनुसार गरीबों में आत्मा ही नहीं होती है ” | ऐसी व्यवस्था की नक़ल करके हम सोचे कि सुख, समृद्धि और शांति आएगी तो मुझे नहीं लगता कि ऐसा होने वाला है | 
कुछ छोटी-छोटी लेकिन हास्यास्पद बाते आपको बताता हूँ कि कैसे अंग्रेजों की व्यवस्था को हमारे यहाँ थोपा गया है और बड़े मजे से चल रहा है, आज भी, बिना रुके, बिना बदले:-|
  • अंग्रेजों ने कानून बना के जिनको अनुसूचित जाति घोषित कर दिया वो आज भी अनुसूचित जाति में हैं, जिनको कानून बनाकर अनुसूचित जनजाति बना दिया वो आज भी अनुसूचित जनजाति में हैं |
  • अंग्रेजों ने जो हिन्दू कोड बिल तय किया, वही हिन्दू कोड बिल आज भी चलता है पूरे देश में, और वो कहते थे कि मुस्लिम कोड बिल हमें बनाना नहीं है तो वो आज तक नहीं बना, अब बनना चाहिए कि नहीं वो अलग मुद्दा है लेकिन महत्वपूर्ण ये है कि वो जो तय कर के गए वो आज भी चल रहा है |
  • यूरोप में रविवार को छुट्टी होती है क्योंकि उन्हें चर्च जाना होता है, हम क्यों उस व्यवस्था को ढो रहे हैं? हमारे लिए तो सब दिन एक समान है, रविवार की छुट्टी तो बंद होनी चाहिए, हम उनकी मान्यताओं को क्यों ढो रहे हैं  | छुट्टी ही देनी है तो किसी और दिन को हम तय कर लेंगे |
  • यूरोप में ठण्ड बहुत होती है और उनके यहाँ सूर्य साल के आठ-नौ महीने नहीं निकालता तो ठण्ड के कारण लोग दफ्तर देर से जाते हैं, दफ्तरों में काम देर से शुरू होता है, हम क्यों उस व्यवस्था को चला रहे हैं अपने देश में ? जब कि हमारे यहाँ साल में नौ-दस महीने गर्मी पड़ती है हमें तो दफ्तर सवेरे शुरू करना चाहिए | हमारे यहाँ तो सवेरे का समय सबसे अच्छा माना जाता है , क्यों हमें दस-ग्यारह बजे दफ्तर का काम शुरू करना चाहिए जब आधा दिन निकल चुका होता है और हमारी आधी शक्ति ख़त्म हो चुकी होती है | जब देश के सत्तर करोड़ किसान सूर्योदय के साथ काम शुरू कर सकते हैं तो दस-बारह करोड़ सरकारी कर्मचारी क्यों नहीं कर सकते ?
  • हमारे यहाँ बजट फ़रवरी के अंत में आता है, क्यों आना चाहिए फ़रवरी में ? उनके यहाँ ऐसा होता है तो उसकी वजह है, वजह ये है कि उनका नया साल अप्रैल से शुरू होता है और उनको अपने लोगों को अप्रैल फूल बनाना होता है, हम क्यों वो व्यवस्था चला रहे हैं, हमारा तो नया साल दिवाली से शुरू होता है तो हमारा बजट दिवाली को आना चाहिए |
  • हम उनकी मान्यताओं में फंसे हैं और जनवरी-फ़रवरी के हिसाब से महीने मानते हैं, क्यों ऐसा होना चाहिए ? जनवरी का क्या मतलब होता है कोई बता सकता है ? कोई नहीं जानता लेकिन आप चैत्र, बैसाख, ज्येष्ठ, असाढ़, सावन आदि का मतलब पूछेंगे तो मैं बता सकता हूँ | और मूर्खों के महीनों के नाम देखिये कैसे-कैसे है –अक्टूबर को लीजिये, अक्टूबर बना है OCT से, ये ग्रीक का शब्द है, इसका मतलब होता है आठ और अक्टूबर महीना कौन सा है ? दसवां | सितम्बर बना है SEPT शब्द से मतलब होता है सात और महीना है नौवां, ऐसे ही नवम्बर है, ये बना है NOV से जिसका मतलब है नौ और महीना है ग्यारहवां, क्या मुर्खता है ? कभी सोचा ही नहीं हमने |   

तो सिस्टम ऐसा है अपना, और ये सिस्टम इसी तरह अंग्रेज चलाते थे तो उनकी मजबूरी थी कि 50 हजार अंग्रेजों को 20 -34 करोड़ भारतीयों पर शासन करना था, इसीलिए उन्होंने ऐसा सिस्टम बनाया था | तो 50 हजार लोग 20 -34 करोड़ लोगों पर शासन करेंगे तो उसके लिए उसी तरीके के नियम कानून बनेंगे और वही नियम कानून अब हम चलाएंगे तो परिणाम तो वही निकलेगा जो उस ज़माने में आता था | सिस्टम तो वही हैं ना? तो प्रोडक्ट भी वही निकलेगा | हमने मशीन नहीं बदला, मशीन हम वही इस्तेमाल कर रहे हैं जो अंग्रेज करते थे | कई बार मैं मजाक में कहता हूँ कि हमने कार नहीं बदली, केवल ड्राइवर बदल लिया है | जो कार अंग्रेज चलाते थे वही कार जवाहर लाल नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह तक जितने प्रधानमंत्री हुए सब ने चलाया | अब सिस्टम नहीं बदलेंगे तो आप किसी को भी ड्राइवर बनाके बिठाएंगे परिणाम वही निकलेगा | आप मुझे भी बैठाएंगे तो परिणाम यही आएगा, नए परिणाम की अपेक्षा मत करियेगा | परिणाम नया चाहिए तो सिस्टम बदलना होगा और उसके लिए प्रयास नहीं करेंगे तो हमारे आँखों के सामने यही तस्वीर आती रहेगी और हम खून के आंसू रोते रहेंगे | गरीबी, बेकारी, भुखमरी होने ही वाली है क्योंकि अंग्रेजों ने जो सिस्टम चलाया उसमे से गरीबी निकलने ही वाली है, बेकारी निकलने ही वाली है, भुखमरी होने ही वाली है, क्योंकि वो यही चाहते थे और इसी हिसाब से उन्होंने ये सिस्टम बनाया था और उसी हिसाब से सिस्टम चलाते थे |
अब आप पूछेंगे कि फिर क्या होना चाहिए ? मेरे हिसाब से आज के समय में सबसे महत्वपूर्ण है भारत के उन नियम-कानूनों को बदलना जो आज भी बिना फुल स्टॉप और कौमा बदले हुए चल रहे हैं | हमने संविधान बना लिया लेकिन वो चलता उसी नियम-कानून से है जो अंग्रेज तय कर के चले गए | क्योंकि संविधान अपने आप में कोई चीज नहीं है, संविधान से अलग जो नियम और कानून हैं वो तय करते हैं कि देश कैसे चलना चाहिए, संविधान में तो बहुत सी अमूर्त बाते हैं और वो नियम के हिसाब से follow की जाती है पूरे देश में | तो अगर वो नियम और कानून नहीं बदलते हैं तो सिस्टम बदलने का प्रश्न ही नहीं है | आप कहते रहिये, संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली, वो आपकी खुशफहमी के लिए है दरअसल वो 101% गुलामगिरी का Aristocratic System है | 
करना क्या है ?

अब भारत के लोगों को क्या करना चाहिए, तो मैं इस मान्यता का हूँ कि हमको बहुत शांत भाव से, प्रशांत भाव से अपने व्यवस्था (system ) की समीक्षा (analysis) करनी होगी, और व्यवस्था की समीक्षा दो आधार पर होनी चाहिए, गाली-गलौज करके नहीं | एक तरीका तो ये हो सकता है कि हम गालियाँ दे इस व्यवस्था को, तो ठीक है, दीजिये, लेकिन उसमे से कुछ निकलने वाला नहीं है या फिर रोते रहिये कि ये गलत है, वो गलत है, वो तो होने ही वाला है | जैसे कई बार हम कहते हैं कि भ्रष्टाचार है, अब जिस सिस्टम में एक ऑफिसर अपने द्वारा सेवा की जाने वाली जनता के प्रति जवाबदेह नहीं है तो भ्रष्टाचार तो बनेगा ही वहां | भ्रष्टाचार बनाने के लिए ही तो ये सिस्टम बनाया था अंग्रेजों ने, आप इस सिस्टम में सदाचार की उम्मीद थोड़े ही कर सकते हैं, भ्रष्टाचार ही निकलेगा पूरे सिस्टम में से | अगर आप चाहते हैं कि भ्रष्टाचार, बेकारी, भुखमरी ख़त्म हो तो इस सिस्टम को बदलिए तो सिस्टम बदलने का एक सामान्य सा सिद्धांत है कि जो कुछ अंग्रेज चलाते थे उसको उठाके फ़ेंक देना और अपने हिसाब से नया बनाना | अंग्रेजों ने कानून बनाया कि सांसद बिल की ड्राफ्टिंग नहीं कर सकते तो हम उस कानून को उठाके फेंक दे और हम तय कर ले कि हमारे बिल की ड्राफ्टिंग हमारे सांसद करेंगे, हमें ज्वाइंट सेक्रेटरी की जरूरत नहीं है, हटाओ इस पोस्ट को | (एक बात और आप जान लीजिये कि हमारे सांसद जब JPC के तहत कोई रिपोर्ट बनाते हैं तो वो एकदम सटीक और सच होता है, ये आप किसी भी JPC की रिपोर्ट पढ़के समझ सकते हैं, ऐसा नहीं है कि हमारे सांसदों में ये गुण नहीं है)  अंग्रेजों ने तय किया कि पटवारी की जवाबदेही SDO के प्रति होगी, हम तय करेंगे कि पटवारी की जवाबदेही गाँव के पंचायत के प्रति होगी, उसकी CR गाँव के लोग लिखेंगे, पटवारी अगर गाँव के पंचायत के प्रति जवाबदेह होगा तो हमेशा उसको गाँव के पंचायत की ख़ुशी देखनी होगी | भ्रष्टाचार अपने आप ख़त्म हो जायेगा | SDO को डिविजन के लोगों के प्रति जवाबदेह बना देना होगा, उसकी CR डिविजन के लोग तैयार करेंगे,  जिलाधिकारी की जवाबदेही उस जिले की जनता के प्रति होगी, उसकी CR जिले के लोग तैयार करेंगे,  आप देख लीजियेगा जिलाधिकारी सीधा काम करना शुरू कर देंगे | इसमें कुछ मुश्किल नहीं है, ये बदलाव बहुत आसान है | इसके अलावा अंग्रेजों द्वारा जो Service Manual छोड़ा गया है, जिसमे Police Manual है, Jail Manual है, जिसमे 14 -15 हजार पन्ने हैं, उसको भारत के जरूरत और मान्यताओं के हिसाब से बना लेना है |
अभी जो भारत का लोकतंत्र है, ये लोकतंत्र तो नहीं चलने वाला, क्योंकि ये मूर्खता पर आधारित तंत्र है, ये चलेगा तो देश का नाश ही करेगा | महर्षि चाणक्य का एक बहुत सुन्दर सूत्र है जिसमे वो कहते हैं कि ” जब अज्ञानी (मुर्ख) लोग ज्ञानियों पर शासन करने लगे तो उस देश का सर्वनाश निश्चित है ” | तो इस देश को तो बचाना ही है, तो बचायेंगे कैसे ? हम जहाँ रहते हैं वहां पर ऐसे लोगों को चुने जिनमे धर्म,संस्कृति,सभ्यता की समझ हो, जो हमारे और दूसरे देशों की संस्कृति और सभ्यता और धर्म में अंतर जानते हों, भारत को जानते हों, भारतीयता क्या है इसको पहचानते हों, कम से कम धर्म के दस लक्षण उन्हें मालूम हो ( धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शौच (स्वच्छता), इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना; ये धर्म के दस लक्षण हैं।) , उनके डिग्री से हमें कोई मतलब नहीं है क्योंकि कई बार डिग्री लिए हुए लोग महामूर्ख निकल जाते हैं | और दूसरी योग्यता कि वो “लंगोट से पक्के हों और जेब से पक्के हों” मतलब स्ख्लन्शील ना हों, जब स्खलित लोग ऊँचे पदों पर पहुंचते हैं तो बंटाधार ही करते हैं, इसके बहुत से उदहारण इस देश में उपलब्ध हैं आप कभी भी देख और समझ सकते हैं, जेब से पक्के मतलब “पैसे पर फिसलने वाले ना हों” | और जिनकी कथनी और करनी एक हों | ऐसे लोगों को हम चुन लें और हर जगह पर ऐसे 10 -20 लोग तो कम से कम मिल ही जायेंगे, फिर उनको प्रशिक्षित किया जाये कि उनको करना क्या है, प्रशिक्षण के बाद उनको लोकसभा में और विधानसभाओं में भेजा जाये और जो काम करवाना है करवा के वापस बुला लिया जाये | व्यवस्था क्या हो कि पार्टी ख़त्म कर दी जाये इस देश में से, पार्टी की जरूरत नहीं है हमें,  और बिना पार्टी के प्रतिनिधियों को हम चुने, हम जहाँ रहते हैं वहां के लोगों के बारे में हमें पता है और कौन सही है, कौन गलत है ये हम जानते हैं, और ये चुने हुए प्रतिनिधि अपने में से ही किसी को प्रधानमंत्री चुन लें, किसी को वित्तमंत्री चुन लें, और जिसको हमने भेजा है उनको वापस भी हम बुला ले एक ही मिनट में, अगर वो हमारी आशा के अनुरूप काम ना करे, गुंडा निकले, भ्रष्टाचारी निकले तो, ये नहीं कि पाँच साल हम इंतजार करते रहे कि दुबारा चुनाव होगा तो हम इसे हराएंगे, जैसे हम कार्यालय में या दुकान पर किसी को काम पर रखते हैं और वो अगर गलत करता हुआ पाया जाता है तो हम इंतजार थोड़े ही करते है उसे निकलने में, वैसे ही इनके साथ होना चाहिए, और ये सारा नियंत्रण लोगों के हाथ में हो | तब जा कर व्यवस्था परिवर्तन हो सकेगा |
अमेरिका भी एक समय स्पैनिश और फिर अंग्रेजों का गुलाम हुआ लेकिन जब अमेरिका आजाद हुआ तो उसने अपने यहाँ मौजूद सभी अंग्रेजी और स्पैनिश निशानियों को हटाया| आप अमेरिका जायेंगे तो देखेंगे कि उन्होंने रोड पर चलने का अपना ढंग भी अंग्रेजों से उलट बनाया है, वो रोड पर दायें चलते हैं, इंग्लैंड में बिजली का स्विच नीचे ऑन होता है और अमेरिका में ऊपर की तरफ | इतने छोटे स्तर पर उन्होंने बदलाव किया अपने यहाँ, और हम? आप जापान का इतिहास देखिये, फ़्रांस का इतिहास देखिये, जर्मनी का इतिहास देखिये, चीन का इतिहास देखिये, सब इंग्लॅण्ड के गुलाम हुए थे लेकिन जब आजाद हुए तो उन्होंने अंग्रेजों की एक-एक व्यवस्था को अपने यहाँ से उखाड़ फेंका, फ़्रांस और जर्मनी ने तो अपने यहाँ के शब्दकोष में से उन सभी शब्दों को हटाया जो अंग्रेजी से लिया गया था, अमेरिका ने अपनी अलग अंग्रेजी विकसित की | आज इन सब देशों का अपना अस्तित्व तो है ही दुनिया भी उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखती है और ये सब हुआ है अपने यहाँ स्वराज्य लाकर, अपनी व्यवस्था बनाकर | इंग्लैंड में जो जो व्यवस्था है, जो नियम है, जो कानून है वो उनके अपने हिसाब से है और उस व्यवस्था को वो बनायें, चलायें, खुश रहें, हमें कोई आपत्ति नहीं है, तकलीफ की बात ये है कि उनकी व्यवस्थाओं को हम अपने यहाँ लायें और सोचे कि भारत सुखी हो जायेगा, समृद्धशाली हो जायेगा, ये तो अपने को धोखा देना है और पिछले 64 सालों से यहीं हो रहा है इस देश में | जो भी सरकार आती है वो अंग्रेजी और यूरोप की व्यवस्थाओं में ही देश को सुधारने की कोशिश करती है, अंत में क्या होता है कि कुछ सुधरता नहीं है | 64 साल छोडिये पिछले 20 सालों में सभी पार्टियों ने देश पर शासन किया है लेकिन देश वहीं का वहीं है क्योंकि सत्ता तो बदली लेकिन व्यवस्था नहीं बदली है | भारत बनेगा भारत के रास्ते से | 
तो मेरे मन में हमेशा एक बात आती है कि अगर हम स्वतंत्रता चाहते है, स्वराज्य चाहते हैं, स्वराज्य जो कि एक बहुत सुन्दर शब्द है, स्वराज्य मतलब अपना राज्य, वो है कहाँ ? ये तो अंग्रेजों का राज्य है, अपना कहाँ हैं ? स्वतंत्रता मिल गयी, गुलामी से मुक्ति मिल गयी, लेकिन स्वराज्य नहीं आया, अपना कुछ भी नहीं है, स्वतंत्रता के 64 साल बाद भी हम गुलाम ही हैं, स्वराज्य तो कोसो दूर है | 1947 के पहले के क्रांतिकारियों ने स्वतंत्रता लाने की लड़ाई लड़ी, अब हमको स्वराज्य के लिए लड़ना होगा | ऐसे ही स्वराज्य नहीं आएगा, या तो आप तय कर लीजिये कि हम स्वराज्य लाने के लिए लड़ेंगे नहीं तो ऐसे ही अपमान से मरते रहेंगे हम इस देश में | दो कौड़ी की आपकी कोई पूछ नहीं है, आपको एक थर्ड क्लास का आदमी सबक सिखा सकता है इस देश में | ना कहीं न्याय है, ना कहीं व्यवस्था है, और कानून इतने बेहुदे हैं इस देश में जिसकी कोई कल्पना नहीं है | अब जरूरत हैं व्यवस्था बदलने की |
देखिये जब देश की आजादी की लड़ाई चल रही थी तो पूरा भारत उस लड़ाई में नहीं लगा था कुछ लोगों ने उस लड़ाई को लड़ा और हमें आजादी दिलाई थी अब हमें स्वराज्य के लिए लड़ना होगा, स्वराज्य मतलब अपना राज्य, अपनी व्यवस्था, तभी हम सफल हो पाएंगे एक राष्ट्र के रूप में, और आप इसमें पुरे भारत से उम्मीद मत करियेगा कि वो इसमें शामिल हो जायेगा लेकिन हाँ सभी भारतीयों के समर्थन की जरूरत जरूर होगी | और किसी क्रांति के पहले एक वैचारिक क्रांति होती है और मैं अभी उसी वैचारिक क्रांति के लिए ही आपको प्रेरित कर रहा हूँ | क्योंकि जब क्रांति हो तो हमारे दिमाग में ये भी तो हो कि हमें करना क्या है, इसलिए ये बाते याद रखियेगा क्योंकि समय नजदीक आ गया है |

भारत की आबादी और गरीबी - श्री राजीव दीक्षित जी

आज मैं लोर्ड मैकोले के एक महत्वपूर्ण वक्तव्य से इस लेख की शुरुआत कर रहा हूँ जो उसने 2 फ़रवरी 1835 को ब्रिटेन के नीचले सदन हाउस ऑफ़ कॉमंस में दिया था ”I have traveled across the length and breadth of India and have not seen one person who is a beggar, who is a thief “  ये वक्तव्य है तो और लम्बा लेकिन मैंने उसके शुरुआती पंक्ति को ही अपने लेख के लिए जरूरी समझा है | मतलब तो आप सब समझ ही गए होंगे, इसलिए मैं सीधे उन शब्दों की ओर आता हूँ जो उसने अपने वक्तव्य में प्रयोग किया है, उसने कहा है कि “मैंने किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं देखा जो भिखारी हो, जो चोर हो”| मतलब ये हुआ कि मैकोले के देश इंग्लॅण्ड में उस समय भिखारी भी थे और चोर भी थे जिस समय भारत में उसे न कोई भिखारी मिला और न ही चोर मिला जब कि उसने संपूर्ण भारत का दौरा किया था और तब बोला था | यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि 1835 में भारत में एक भी भिखारी नहीं है, मतलब ये हुआ कि भारत में गरीबी नहीं है और कोई गरीब भी नहीं है | जब गरीबी नहीं है तो उसे चोरी करने की भी जरूरत नहीं है |
अब मैं 1947 में आता हूँ, अंग्रेजों ने भारत से जाने के पहले एक सर्वे कराया था जिसमे कहा गया था कि भारत में 4 करोड़ लोग गरीब हैं, ये आंकड़े RBI के भी हैं हाला कि उस समय के अर्थशास्त्रियों ने ये कहा था कि “अंग्रेजों ने गलत सर्वे रिपोर्ट दिया है ताकि दुनिया में उनकी बदनामी न हो दरअसल भारत में ज्यादा गरीब हैं” | वो सर्वे सही थी या गलत मैं उसमे नहीं जाना चाहता | प्रथम प्रधानमंत्री ने एक कमीशन बनाया कि गरीबों की सही संख्या पता चल सके तो 1952 में जब देश में पहली पंचवार्षिक योजना लागू हुई तो उस समय उन्होंने बताया कि देश में वास्तविक गरीबों की संख्या 16 करोड़ है | अब मैं यहाँ सीधे 2007 में आता हूँ जब इस देश की संसद में प्रोफ़ेसर अर्जुन सेनगुप्ता की रिपोर्ट पेश हुई | पहले मैं प्रोफ़ेसर अर्जुन सेनगुप्ता के बारे में थोड़ी जानकारी यहाँ दे दूँ | प्रोफ़ेसर अर्जुन सेनगुप्ता दुनिया के जाने माने अर्थशास्त्रियों में गिने जाते थे, भारत सरकार का एक विभाग है योजना आयोग, प्रोफ़ेसर अर्जुन सेनगुप्ता बहुत दिनों तक इस योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे | श्रीमती इंदिरा गाँधी के समय वो लम्बे समय तक भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार भी रहे और पश्चिम बंगाल (अब पश्चिम बंग) सरकार के भी लम्बे समय तक वो आर्थिक सलाहकार रहे, सारी दुनिया के नामी विश्वविद्यालयों में वो उनके बुलावे पर लेक्चर देने जाते थे | तो अर्जुन सेनगुप्ता साहब ने सरकार के कहने पर चार साल के अध्ययन के बाद जो रिपोर्ट दी वो काफी चौंकाने वाली है | उनकी रिपोर्ट के अनुसार भारत की 115 करोड़ की जनसँख्या में 84 करोड़ लोग बहुत गरीब हैं, इतने गरीब हैं ये 84 करोड़ लोग कि उनको एक दिन में खर्च करने के लिए 20 रूपये भी नहीं है और इन 84 करोड़ में से 50 करोड़ ऐसे हैं जिनके पास खर्च करने के लिए 10 रूपये भी नहीं है और इन 84 करोड़ में से 25 करोड़ के पास खर्च करने के लिए 5 रुपया भी नहीं है और बाकी के पास 50 पैसे भी नहीं है खर्च करने के लिए |
जब मैं इस क्षेत्र के विशेषज्ञ लोगों से भारत की इस स्थिति के बारे में पूछता हूँ कि हमारे यहाँ इतनी गरीबी क्यों है, गरीब क्यों हैं, बेकारी क्यों है, भुखमरी क्यों है तो वो कहते हैं कि भारत की गरीबी की मुख्य वजह हमारी बढती हुई जनसँख्या है, जब मैं साधारण लोगों से पूछता हूँ तो वो भी यही जवाब देते है | फिर मैंने इस पर काम किया तो मुझे जो बात समझ में आयी वो मैं आपके सामने रखता हूँ | ……………………..1947 में जब हम आज़ाद हुए तो हमारे देश की आबादी 34 करोड़ थी और आज 2011 के जनगणना के मुताबिक हम 120 करोड़ हो गए हैं | 1947 में हमारे देश में अनाज का उत्पादन जो था वो साढ़े चार करोड़ टन था और आज 2011 में यह बढ़कर साढ़े 23 करोड़ टन के आसपास पहुँच गया है | 1947 में भारत में कारखाने बहुत कम थे और कारखानों में होने वाला उत्पादन भी बहुत कम था, उस समय भारत का औद्योगिक उत्पादन एक लाख करोड़ रूपये के आसपास था और आज ये दस लाख करोड़ रूपये के आसपास पहुँच गया है | 1947 में हमारे यहाँ गरीबों की संख्या 4 करोड़ थी अब उस स्तर के गरीबों की संख्या 84 करोड़ हो गयी है मतलब आबादी बढ़ी साढ़े तीन गुना लेकिन गरीब बढ़ गए 21 गुना, बात आप समझ रहे हैं न ? इन 64 सालों में आबादी बढ़ी साढ़े तीन गुनी और गरीब बढ़ गए 21 गुना, ये गरीबों के अनुपात में आबादी के हिसाब से वृद्धि होनी चाहिए थी, मतलब गरीबों की संख्या में भी साढ़े तीन गुनी वृद्धि होनी चाहिए थी, मतलब हमारे देश में आज 2011 मे 14 -15 करोड़ से ज्यादा गरीब नहीं होने चाहिए थे, है न ?  और इसी अवधि में अनाज का उत्पादन लगभग  छः गुना बढ़ा है, मतलब आबादी बढ़ी साढ़े तीन गुनी और अनाज उत्पादन में वृद्धि हुई छः गुनी, फिर क्यों भुखमरी से मर रहे हैं हमारे देश के लोग ? अगर आबादी बढती पांच गुना और अनाज उत्पादन में वृद्धि होती तीन गुना तो मैं मान लेता कि भुखमरी होने का कारण जायज है | और औद्योगिक उत्पादन में दस गुनी वृद्धि हुई है इन 64 सालों में फिर बेरोजगारों की इतनी बड़ी फ़ौज कैसे खड़ी हो गयी है हमारे देश में ? तो कहीं न कहीं नीतियों के स्तर पर हमारे सरकार से चुक हुई है जो गरीबी, भुखमरी और बेकारी रोकने में असफल रही है | ये जो हमने हमारे मन में बैठा लिया है या हमारे दिमाग में बैठा दिया गया है कि जनसँख्या बढ़ने से गरीबी बढती है या जनसँख्या बढ़ने से बेकारी बढती है या  जनसँख्या बढ़ने से भुखमरी बढती है तो ये सिद्धांत ही गलत है |
दुनिया में एक अर्थशास्त्री हुआ माल्थस जिसने ये सिद्धांत दिया था कि जिस देश में जनसँख्या ज्यादा होगी वहां गरीबी ज्यादा होगी, बेकारी ज्यादा होगी | हाला कि उसके इस सिद्धांत को यूरोप के देशों ने ही नकार दिया है लेकिन इस देश का दुर्भाग्य देखिये कि इस देश के लोग वही सिद्धांत पढ़ते हैं और दुसरे लोगों को समझाते हैं | अब इसी सिद्धांत को यूरोप और अमेरिका पर लागू किया जाये तो बिलकुल उलट स्थिति दिखाई देती है, भारत अकेला ऐसा देश नहीं है जिसकी जनसँख्या बढ़ी है पिछले पचास वर्षों में या सौ वर्षों में | दुनिया के हर देश की जनसँख्या कई गुनी बढ़ी है, अमेरिका की, फ्रांस की, जर्मनी की, जापान की, चीन की, चीन की तो सबसे ज्यादा बढ़ी है | अमेरिका की जनसँख्या पिछले 60 वर्षों में ढाई गुनी बढ़ी है, ब्रिटेन सहित  यूरोप की जनसँख्या तो पिछले 60 सालों में तीन गुनी बढ़ी है, लेकिन देखने में आया है कि यूरोप और अमेरिका की आबादी बढ़ी है तीन गुनी और इसी अवधि में उनके यहाँ अमीरी बढ़ गयी है एक हजार गुनी | तो अमेरिका और यूरोप में जनसँख्या बढ़ने से पिछले साठ सालों में अमीरी आती है तो भारत में जनसँख्या बढ़ने से गरीबी क्यों आनी चाहिए और अगर भारत में जनसँख्या बढ़ने से गरीबी आती है तो यूरोप और अमेरिका में भी जनसँख्या बढ़ने से गरीबी आनी चाहिए थी, है ना ? क्योंकि सिद्धांत दुनिया में सर्वमान्य हुआ करते हैं, सिद्धांत कभी किसी देश की सीमाओं में नहीं बंधा करते | अगर सिद्धांत है कि जनसँख्या बढ़ने से गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी बढती है तो जनसँख्या तो दुनिया के तमाम देशों की बढ़ी है लेकिन भारत छोड़ कर बहुत सारे देशों में देखा जा रहा है कि वहां जनसँख्या के साथ-साथ अमीरी बढ़ रही है | आप सुनेंगे तो हैरान हो जायेंगे कि डेनमार्क, नार्वे, स्वेडेन आदि देशों में वहां की सरकारें जनसँख्या बढाने के लिए अभियान चलाती है, बच्चों के पैदा होने से उनके यहाँ नौकरी में प्रोमोशन तय होता है, जिसके जितने ज्यादा बच्चे उनकी उतनी ज्यादा प्रोमोशन | हमारे यहाँ उल्टा क्यों है ? हमारे यहाँ कहा जाता है कि बच्चे कम पैदा करो | अगर ये देश ज्यादा बच्चे पैदा कर के अमीर हो सकते हैं तो भारत ज्यादा बच्चे पैदा कर के अमीर क्यों नहीं हो सकता ? या अगर वो ज्यादा बच्चे पैदा कर के गरीब नहीं हो रहे हैं तो हम क्यों ज्यादा बच्चे पैदा कर के गरीब हो रहे हैं ? ये बड़ा प्रश्न है, जिसको मैं आपके सामने रखना चाहता हूँ और मैं ये इसलिए करना चाहता हूँ कि हमारे मन में बहुत सारी गलतफहमियां बैठी हुई है जनसँख्या को लेकर और गरीबी को लेकर | मैं आपसे निवेदन ये करना चाहता हूँ कि जनसँख्या का किसी भी देश की गरीबी से कुछ लेना-देना नहीं होता है, बेरोजगारी का जनसँख्या से कोई सम्बन्ध नहीं है |
आपको कभी चीन जाने का मौका मिले तो देखिएगा कि चीन की सरकार अपने लोगों को कभी भी अभिशाप नहीं मानती, चीन की सरकार तो ये कहती है कि जितने ज्यादा हाथ उतना ज्यादा उत्पादन और उन्होंने ये सिद्ध कर के दुनिया को दिखाया भी है, तो भारत में ये सिद्धांत कि “जितने ज्यादा हाथ तो उतना ज्यादा उत्पादन” क्यों नहीं चल सकता ? कारण उसका एक है , कारण ये है कि चीन की सरकार ने अपनी सारी व्यवस्था को ऐसे बनाया है जिसमे अधिक से अधिक लोगों को काम मिल सके और भारत सरकार ने अपनी व्यवस्था को ऐसे बनाया है जिसमे कम से कम लोगों को काम मिल सके | बस इतना ही फर्क है | हमारे देश की पूरी की पूरी व्यवस्था, चाहे वो आर्थिक हो , चाहे पूरी कृषि व्यवस्था हो ये आज ऐसे ढांचे में ढाली जा रही है जिसमे कम से कम हाथों को काम मिल सके | हम फंसे हैं यूरोपियन व्यवस्था पर मतलब Mass Production का सिद्धांत हमने अपनाया है और चीन ने सिद्धांत अपनाया है Production By Masses का |  हमारे देश के एकमात्र महान राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम साहब ने Nano Technology अपनाने के लिए कहा लेकिन उनकी बात शायद किसी के समझ में नहीं आयी, ये Nano Technology जो है वो यही Production By Masses का Concept है | हमें बड़े नहीं छोटे (Nano) उद्योगों की जरूरत है जिससे हम ज्यादा से ज्यादा लोगो को काम दे सके | हम लोग कम लोगों से ज्यादा उत्पादन लेना चाहते है इसलिए Automisation की बात है, Computerisation की बात है, Centralisation की बात है और चीन में इसका ठीक उलट है, मतलब ज्यादा लोगों द्वारा ज्यादा उत्पादन तो उनके यहाँ Decentralisation की बात है,Labour Intensive Technology की बात है, हमारे यहाँ ठीक उल्टा है, हमारे यहाँ Capital Intensive Technology की बात है | हमारी व्यवस्था गड़बड़ है लोग गड़बड़ नहीं हैं | जनसँख्या हमारी बढ़ गयी है तो इसमें लोगों का कसूर नहीं है, हमारी व्यवस्था निकम्मी और नाकारा है जो बढे हुए लोगों को काम नहीं दे पाते और AC रूम में बैठ के गलियां देते हैं कि ज्यादा लोग पैदा हो गए इस देश में | अगर आप हर हाथ को काम देने की व्यवस्था इस देश में लगायें तो भारत का कोई भी आदमी आपको बेकार बैठा नजर नहीं आएगा |  आप जानते हैं कि दुनिया में हर काम हाथ से ही होते हैं, कम्प्यूटर भी हाथों से ही चला करता है, कम्प्यूटर को कम्प्यूटर नहीं चला सकता है कभी भी | कम्प्यूटर चलाने के लिए भी किसी का दिमाग लगता है और किसी के हाथ लगते हैं और इश्वर ने आपको जो दिमाग और हाथ दिया है आप उसी को अभिशाप मान के बैठे हैं तो ये आपके लिए दुर्भाग्य की बात है किसी दुसरे के लिए नहीं | ये हमारी समझ का फेर है, हमारी बुद्धि का फेर है | और इस  समझ और बुद्धि का फेर हुआ कैसे है तो वो परदेशों से आने वाला विचार है जिसने हमें उड़ा दिया है एक हवा में | कोई अमेरिका से कह देता है या यूरोप से कह देता है कि  भारत को  जनसँख्या कम करनी चाहिए तो हम लग जाते हैं जनसँख्या कम करने में | आप हौलैंड जायेंगे तो पाएंगे कि वहां प्रति  स्क्वायर किलोमीटर में सबसे ज्यादा लोग रहते हैं, लन्दन और टोकियो जैसे शहर में दुनिया की सबसे घनी आबादी रहती है, लेकिन उनको चिंता नहीं है अपनी आबादी कम करने की, उनके यहाँ आबादी कम करने का कोई कैम्पेन नहीं चला करता, और हम मूर्खो के मुर्ख इसी काम में लगे हैं | हम अपनी अक्ल से, अपने दिमाग से, अपने देश की परिस्थितियों के हिसाब से कभी सोच के नहीं देखते हैं कि हमारे लिए ये ठीक है क्या ? जो वहां से कहा जा रहा है हम उसे ही आँख मूंद के स्वीकार कर ले रहे हैं | भारत में हुआ कुछ ऐसा ही है | आजादी के बाद जो व्यवस्था बनाई गयी है इस व्यवस्था में ज्यादा से ज्यादा लोगों को बेकारी ही मिल सकती है, रोजगार नहीं मिल सकता | भारत की व्यवस्था इस तरह की बनाई गयी है जिसमे ज्यादा से ज्यादा लोगों को गरीबी ही मिल सकती है, अमीरी नहीं मिल सकती और अगर अमीरी मिलेगी भी तो थोड़े लोगों को जो शायद एक प्रतिशत भी नहीं हैं पुरे भारत की आबादी की | हो सकता है भारत में एक करोड़ लोग बहुत अमीर हों लेकिन 99 करोड़ लोगों को आप हमेशा जीवन में संघर्ष करते हुए ही पाएंगे, मुंबई में एक उद्योगपति हैं जो अपनी पत्नी को जन्मदिन के गिफ्ट के रूप में बोईंग विमान दे देते हैं और उसी मुंबई में धारावी के रूप में  एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी झोपड़ी भी है, जहाँ 10×10 के रूम में दो पीढियां रहती हैं | व्यवस्था हमारी ऐसी है और ये व्यवस्था हमारी जो ऐसी है जो गरीबी देती है, बेकारी देती है, भुखमरी देती है वो दुर्भाग्य से अंग्रेजों की बनाई हुई है जिसको हमें 1947 में तोड़ देना चाहिए था उसको हम तोड़ नहीं पाए और वही व्यवस्था चलती चली आयी है और उस व्यवस्था के विरोधाभास हमको दिखाई तो देते हैं लेकिन उस व्यवस्था को ठीक करने का रास्ता नहीं दिखाई देता इसलिए हम हमारी जनसँख्या को कोसते रहते हैं, अपने लोगों को कोसते रहते हैं, व्यवस्था की गलती, व्यवस्था की खामी हमको दिखाई देना बंद हो चूकी है, मुश्किल हमारी व्यवस्था में है, लोगों में नहीं | इस लेख को यहीं विराम देता हूँ नहीं तो बोझिल हो जायेगा | अगली बार उस व्यवस्था के बारे में बताऊंगा जो हमारी इस हालत के लिए जिम्मेवार है |
देखिये जब देश की आजादी की लड़ाई चल रही थी तो पूरा भारत उस लड़ाई में नहीं लगा था कुछ लोगों ने उस लड़ाई को लड़ा और हमें आजादी दिलाई थी अब हमें स्वराज्य के लिए लड़ना होगा, स्वराज्य मतलब अपना राज्य, अपनी व्यवस्था, तभी हम सफल हो पाएंगे एक राष्ट्र के रूप में, और आप इसमें पुरे भारत से उम्मीद मत करियेगा कि वो इसमें शामिल हो जायेगा लेकिन हाँ सभी भारतीयों के समर्थन की जरूरत जरूर होगी | और किसी क्रांति के पहले एक वैचारिक क्रांति होती है और मैं अभी उसी वैचारिक क्रांति के लिए ही आपको प्रेरित कर रहा हूँ | वैचारिक क्रांति कैसे होगी ? वैचारिक क्रांति तब होगी जब ज्यादा से ज्यादा लोगों तक ऐसी बातें पहुंचाई जाये और मुझे उम्मीद ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आप इस मेल को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाएंगे |

भूमि अधिग्रहण कानून का इतिहास - श्री राजीव दीक्षित जी

भूमि अधिग्रहण कानून का इतिहासभारत में सबसे पहले भूमि अधिग्रहण कानून अंग्रेजों ने लाया था 1839 में लेकिन इसे लागू किया 1852 में और वो भी बम्बई प्रेसिडेसी में | बम्बई प्रेसिडेंसी जो थी उसमे शामिल था आज का महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, गोवा और मध्य प्रदेश का वो इलाका जो नागपुर से लगा हुआ है | भारत की पहली क्रांति जो 1857 में हुई थी उस समय  भारत से सारे अंग्रेज चले गए थे और जब इस देश के कुछ गद्दार राजाओं के बुलावे पर वापस आये तो उन्होंने इस कानून को पुरे देश में लागू कर दिया | फिर 1870 में इसमें एक संशोधन कर दिया गया और वो संसोधन ये था कि “जमीन के अधिग्रहण का नोटिस एक बार अंग्रेज सरकार ने जारी कर दिया तो उस नोटिस को भारत के किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती और कोई भी अदालत इस मामले की सुनवाई नहीं कर सकता”, मतलब अंग्रेज सरकार की जो नीति है वो अंतिम रहेगी, उसमे कोई फेरबदल नहीं होगा, कोई किसान अपनी जमीन छिनने की शिकायत किसी से नहीं कर सकता और इसी संसोधन में ये भी हुआ कि जमीन का मुआवजा सरकार तय करेगी और ये संसोधन सारे राज्यों में लागू हुआ | आखरी बार इसमें जो संसोधन हुआ वो 1894 में हुआ और वही संसोधित कानून आज भी इस देश में लागू हैं आजादी के 64 साल बाद भी | इस कानून में व्यवस्था क्या है ? व्यवस्था ये है कि केंद्र की सरकार हो, राज्य की सरकार हो, नगरपालिका की सरकार हो या जिले की सरकार हो, हर सरकार को, इस कानून के आधार पर किसी की जमीन को लेने का अधिकार है |
शहीदे आजम भगत सिंह को जब फाँसी की सजा हुई थी और उनको जेल में रखा गया था उस समय उन्होंने जितने इंटरव्यू दिए या पत्रकारों से बातचीत की हर बार वो कहा करते थे कि अंग्रेजों के सबसे ज्यादा दमनकारी कोई कानून भारत में है तो उसमे से एक है “भूमि अधिग्रहण कानून” और दूसरा है “पुलिस का कानून (इंडियन पुलिस एक्ट)” और भगत सिंह का कहना था कि आजादी के बाद ये कानून ख़त्म होना चाहिए, ऐसे ही चंद्रशेखर आजाद ने भी इस कानून के खिलाफ पर्चे बटवाए थे | ऐसे एक नहीं, दो नहीं, हजारों, लाखों क्रांतिकारियों का ये मानना था कि ये भूमि अधिग्रहण का कानून सबसे दमनकारी कानून है और अंग्रेजों के बाद इस कानून को समाप्त हो जाना चाहिए | हमारे सारे शहीदों का एक ही सपना था चाहे वो हिंसा वाले शहीद हो या अहिंसा वाले शहीद हो कि ये भूमि अधिग्रहण का जो कानून है वो अत्याचारी है, बहुत ज्यादा अन्याय करने वाला है, शोषण करने वाला है, इसलिए इस कानून को तो रद्द होना ही चाहिए, ख़त्म होना ही चाहिए | अब 15 अगस्त 1947 को जब ये देश आजाद हुआ तो ये अंग्रेजों का अत्याचारी कानून ख़त्म हो जाना चाहिए था लेकिन ये बहुत दुःख और दुर्भाग्य से मुझे कहना पड़ता है कि ये कानून आज आजादी के 64 साल बाद भी इस देश में चल रहा है और इस कानून के आधार पर किसानों से जमीने आज भी छिनी जा रही है और इस कानून के आधार पर आज भी हमारे किसानों को भूमिहीन किया जा रहा है | मुझे बहुत दुःख और दुर्भाग्य से ये कहना पड रहा है कि जिस तरह से अंग्रेजों की सरकार किसानों से जमीन छिना करती थी ठीक वैसे ही आजाद भारत की सरकार किसानों से जमीन छिना करती है | इसी कानून का सेक्सन 4 है इसी कानून का पैरा 1 है, उसके आधार पर अंग्रेज जमीन छिनने के लिए नोटिस जारी करते थे वही सेक्सन 4 और पैरा 1 का इस्तेमाल कर के आज भारत सरकार भी नोटिस जारी करती है और उसी तरीके से नोटिस आता है जिलाधिकारी के माध्यम से और जमीन छिनने के लिए आदेश थमा दिया जाता है और जिसका जमीन है उसके हाँ या ना का कोई प्रश्न ही नहीं है | और जमीन का भाव सरकार वैसे ही तय करती है जैसे अंग्रेज किया करते थे | कोर्ट इसमें हस्तक्षेप न करे इसके लिए इसमें चालाकी ये की गयी है कि इस भूमि अधिग्रहण कानून को संविधान के 9th Schedule में डाल दिया गया है जिसमे कोई petition भी नहीं दी जा सकती | भूमि अधिग्रहण का पूरा मामला हमारे संविधान के 9th Schedule में है और संविधान के 9th Schedule बारे में स्पष्ट है कि कोई भी व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में केस नहीं कर सकता |
जमीनों का बंदरबांट 
अब देखिये ये अधिग्रहित जमीन किसके पास कितनी है | भारत में एक रेल मंत्रालय है, उसके देश भर में रेलवे स्टेशन है, यार्ड है जहाँ डिब्बे खड़े रहते हैं, इसके अलावा रेल के चलने के लिए रेलवे लाइन हैं | करीब 70 हजार डिब्बे यार्ड में खड़ा करने के लिए जो जगह चाहिए, 6909 रेलवे स्टेशन बनाने के लिए जो जमीन ली गयी है, और 64 हजार किलोमीटर रेलवे लाइन बिछाने के लिए जो जमीन किसानों से ली गयी है या छिनी गयी है इस कानून के आधार पर वो बेशुमार है, आप कल्पना नहीं कर सकते है, आपके मन में ये सपने में भी नहीं आ सकता है कि इतनी जमीन ली जा सकती है | जो जमीन हमारी सरकार ने किसानों से छिनी है इस रेलवे विभाग के लिए वो 21 लाख 50 हज़ार एकड़ जमीन है | हमारे रेल मंत्रालय के दस्तावेजों में से निकले गए आंकड़े हैं ये | 21 लाख 50 हजार एकड़ जमीन रेल मंत्रालय ने इस कानून के तहत हमारे किसानों से छीन कर अपने कब्जे में ली है, अपनी सम्पति बनाई है जिस पर 64 हजार किलोमीटर रेलवे लाइन हैं,70 हजार डिब्बे यार्ड में खड़े होते हैं और 6909 रेलवे स्टेशन खड़े हैं | अब आप तुरत ये सवाल करेंगे कि रेल मंत्रालय ने ये जमीन ली है वो लोगों के हित के लिए है | आपकी बात ठीक है कि लोगों के हित के लिए ये जमीन ली गयी है लेकिन लोगों के हित में उन किसानों का हित भी तो शामिल है जिनसे ये जमीन ली गयी हैं | आप दस्तावेज देखेंगे तो पाएंगे कि आजादी के बाद 1947-48 में जो जमीन किसानों से ली गयी है उसकी कीमत है एक रुपया बीघा, दो रूपये बीघा, ढाई रूपये बीघा, तीन रूपये बीघा और आज उन जमीनों की कीमत है एक करोड़ रूपये बीघा, दो करोड़ रूपये बीघा | किसानों से एक,दो,तीन रूपये बीघा ली गयी जमीन करोड़ों रूपये बीघा है तो जिन किसानों से ये जमीन ली गयी उनके साथ कितना अन्याय हुआ, इसकी कल्पना आप कर सकते हैं | अब रेलवे विभाग इस जमीन का इस्तेमाल कर के एक साल में 93 हजार 159 करोड़ रुपया कमाता है | आप सोचिये कि किसानों से जो 21 लाख 50 हजार एकड़ जमीन ली गयी भूमि अधिग्रहण कानून के आधार पर और उस जमीन का इस्तेमाल कर के रेल विभाग एक साल में 93 हजार 159 करोड़ रुपया कमाता है तो क्या रेल मंत्रालय का ये दायित्व नहीं बनता, ये नैतिक कर्त्तव्य नहीं बनता कि इस कमाए हुए धन का कुछ हिस्सा उन किसानों को हर साल मिलना चाहिए जिनसे ये जमीने छिनी गयी हैं और जिनकी ये जमीने कौड़ी के भाव में ली गयी हैं | मैं मानता हूँ कि किसानों की बराबर की हिस्सेदारी होनी चाहिए इस फायदे में, इस लाभ के धंधे में | रेलवे विभाग इस देश में कोई घाटा देने वाला विभाग नहीं है | उसका हर साल का नेट प्रोफिट 19 हजार 320 करोड़ रुपया है | अगर शुद्ध आमदनी में से ही 10 या 15 प्रतिशत हिस्सा उन किसानों के लिए निकल दिया जाये तो उन करोड़ों किसानों के जिंदगी का आधार तय हो जायेगा जिन्होंने आज से 50 -60 साल पहले कौड़ी के भाव में अपनी जमीन गवां दी थी रेलवे के हाथों में |
इसी तरह सरकार का एक दूसरा महत्वपूर्ण विभाग है जिसने किसानों से जमीन ली है भूमि अधिग्रहण के नाम पर, उस विभाग का नाम है भूतल परिवहन मंत्रालय | ये  भूतल परिवहन परिवहन मंत्रालय रोड और यातायात का काम देखती है | भारत में दो तरह के रोड होते हैं एक नेशनल हाइवे और दूसरा स्टेट हाइवे | आजादी के बाद इस देश में 70 हजार 5 सौ अड़तालीस किलोमीटर नेशनल हाइवे बनाया गया है और इस 70 हजार 5 सौ 48 किलोमीटर लम्बे सड़क के लिए किसानों से 17 लाख एकड़ जमीन छिनी गयी और इस जमीन पर सड़क जो बनती है उस पर ठेकेदार किलोमीटर के हिसाब से पैसा वसूलते हैं, लेकिन जिन किसानों ने हजारों एकड़ जमीन अपनी दे दी है उन्हें उस कमाई में से एक पैसा भी नहीं दिया जाता, इतना बड़ा अत्याचार इस देश में कैसे बर्दास्त किया जा सकता है | आप जानते हैं कि इस देश के नेशनल हाइवे पर जब हम चलते हैं तो हर पचास किलोमीटर पर टोल टैक्स हमको भरना पड़ता है और गाड़ी खरीदने के समय पूरी जिंदगी भर का रोड टैक्स हमको भरना पड़ता है | सरकार उस जमीन पर रोड बनवाकर टैक्स का पैसा तो अपने खाते में जमा करा लेती है लेकिन उन किसानों को टैक्स के पैसे में से कुछ नहीं दिया जाता जिनसे ये 17 लाख एकड़ जमीन छिनी गयी हैं भूमि अधिग्रहण कानून के हिसाब से और इन सड़कों पर कारें, ट्रक, बस आदि चलते हैं, देश की आमदनी उससे होती है और ये आमदनी हमारे GDP में जुड़ जाती है लेकिन उन किसानों का क्या जिन्होंने अपने खून-पसीने की कमाई की 17 लाख एकड़ जमीन एक झटके में हमारी सरकार को दे दी भूमि अधिग्रहण कानून के आधार पर, देश के लोगों का भला हों इस आधार पर | किसानों को कुछ तो नहीं मिल रहा है | इसी तरह से स्टेट हाइवे है, आप जानते हैं कि भारत में 29 राज्य हैं और एक एक राज्य में 10 से 12 हजार किलोमीटर का स्टेट हाइवे है | उत्तर प्रदेश में 14 हजार किलोमीटर, मध्य प्रदेश में 12 हजार किलोमीटर है और ऐसे ही हर राज्य में है और कुल मिलकर एक लाख किलोमीटर से ज्यादा स्टेट हाइवे है और इसमें किसानों की लाखों एकड़ जमीन जा चुकी हैं |
ऐसे ही स्कूल, कॉलेज बनवाने के लिए सरकार द्वारा जमीने ली गयी हैं | हमारे भारत में 13 लाख प्राइमरी, मिडिल और इंटर स्तर के स्कूल हैं और करीब 14 हजार डिग्री स्तर के कॉलेज है और 450 विश्वविद्यालय हैं | इन स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय में जो कुल जमीन गयी हैं वो करीब 13 लाख एकड़ जमीन है, ये जमीन भी किसानों ने शिक्षा के नाम पर केंद्र सरकार को दी है, राज्य सरकारों को दी है | आप जानते हैं कि कॉलेज बनाने के नाम पर कौड़ी के भाव में जमीन मिलती है फिर वो जमीन का उपयोग कर के बिल्डिंग बनायी जाती है, फिर donation ले के नामांकन दी जाती हैं विद्यार्थियों को, ये donation लाखों करोड़ों में होती है | कोई भी कॉलेज घाटे में नहीं चलता, सब के सब फायदे में चलते हैं, लेकिन उन किसानों को कुछ भी नहीं मिलता है जिन्होंने एक झटके में वो जमीन कॉलेज बनाने के लिए दे दी है | 
हमारे देश में हॉस्पिटल किसानों के जमीन पर बनाई गयी है | हमारे देश की सरकार ने 15 हजार 3 सौ 93 हॉस्पिटल इस देश में तैयार किये गए हैं और इन हॉस्पिटल को बनाने के लिए कुल लगभग 8 लाख 75 हजार एकड़ जमीने किसानों से ली गयी हैं | इन जमीनों पर जो हॉस्पिटल खड़े हुए हैं उन हॉस्पिटल को बनाने के समय सरकार का हॉस्पिटल बनाने वालों से समझौता हुआ है और उसमे ये लिखा गया है कि गरीब किसानों के लिए इन हॉस्पिटल में निःशुल्क इलाज मिलेगा तभी जमीन कम कीमत पर मिलेगी लेकिन कोई हॉस्पिटल गरीब किसानों को निःशुल्क इलाज नहीं देता है | इतने महंगे इलाज हैं कि हॉस्पिटल बनाने के लिए जिस किसान ने जमीन दे दी, उसी किसान को अपने घर वालों का इलाज कराने के लिए उस हॉस्पिटल में जब जाना पड़ता है तो जमीन बेंच कर जो पैसे आये हैं वो सारे पैसे खर्च करने पड़ते हैं तब जाकर उसके परिजन का इलाज होता है | मतलब पैसे वापस उसी हॉस्पिटल में चला जाता है | इसलिए किसान वहीं के वहीं रहते हैं | उनका शोषण वैसे के वैसे ही होता है | तो हॉस्पिटल के लिए ली गयी 8 लाख 75 हजार एकड़ जमीन हैं | इसी तरह भारत में भारतीय और विदेशी कंपनियों ने उद्योग स्थापित किये हैं और उन उद्योगों के लिए 7 लाख एकड़ जमीन ली गयी है और इसी तरह भारत देश में भारत सरकार का एक विभाग है दूरसंचार मंत्रालय | इसके भवन सारे देश में बने हुए हैं और उसके लिए 1 लाख 55 हजार एकड़ जमीन इसने किसानों से ले रखी है | इसी तरह भारत सरकार के 76 मंत्रालय हैं उन 76 मंत्रालयों और राज्य सरकारों के मंत्रालय और म्युनिसिपल कारपोरेशन के काम करने वाले विभाग हैं, तीनों स्तर पर लाखो एकड़ जमीन तो ली जा चुकी हैं अब तक सरकार के द्वारा और करीब 25-30 लाख एकड़ जमीन ली जा चुकी है कंपनियों और निजी व्यक्तियों के द्वारा | ये सारे जमीन किसानों के हाथ से निकल कर निजी संपत्ति बन चुकी है सरकार और कंपनियों की | और किसान वहीं गरीब के गरीब हैं, वो आत्महत्या कर रहे हैं, भूखों मर रहे हैं और उनकी जमीनों पर लोग सोना पैदा कर रहे हैं | ये अत्याचार ज्यादा दिनों तक अब बर्दाश्त नहीं किया जा सकता,  आजादी के 64 साल तक तो बर्दाश्त हो गया अब क्षमता नहीं है | 
कई बार मजाक होता है किसानों के साथ ये कि किसानों के जमीन का भाव तय किया जाता है एक रुपया स्क्वायर फीट, पचास पैसे स्क्वायर फीट, पंद्रह पैसे स्क्वायर फीट | आपको एक सच्ची घटना सुनाता हूँ | आज से लगभग बीस साल पहले गुजरात के गांधीधाम के पास एक द्वीप सतसैदा वेट को वहां की तत्कालीन सरकार ने एक अमरीकी कंपनी ‘कारगिल’ को पंद्रह पैसे स्क्वायर फीट के दर से बेंच दिया था नमक बनाने के लिए | वो द्वीप 70 हजार एकड़ का था | जनहित याचिका के अंतर्गत जब ये मामला गुजरात उच्च न्यायलय में पहुंचा और गुजरात सरकार से जब ये पूछा गया तो उसने इस बात को स्वीकार किया और कहा कि ये जमीन भारत के नागरिकों के हित को ध्यान में रखकर विदेशी कंपनी को बेचीं गयी है| सरकार का तर्क था कि ये कारगिल कंपनी जो नमक बनाएगी वो भारत के आम नागरिकों के आवश्यकता को पूरा करेगी और ये समझौता देशहित में है तो दुसरे पक्ष ने भी तर्क दिया कि इसमें ऐसी कौन सी तकनीक ये लगायेंगे ? जो काम ये कारगिल कंपनी करेगी वो काम तो गांधीधाम के गरीब किसान भी कर सकते हैं और वो भी इस लोकहित का काम कर सकते हैं | कोर्ट ने जब इस मामले की जाँच कराई तब पता चला कि इसमें घोटाला हुआ है और घोटाला ये हुआ है कि इस जमीन को पंद्रह पैसे की दर से बिका तो दिखाया गया है लेकिन पिछले दरवाजे से भारी रिश्वत ली गयी थी | तो हाई कोर्ट के कारण उस समय के मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा और हाई कोर्ट ने इस समझौते को रद्द कर दिया था | समझौते को रद्द करने के पीछे कारण जो था वो भूमि अधिग्रहण का कानून नहीं था, क्योंकि भूमि अधिग्रहण के मामले में किसी कोर्ट में केस नहीं किया जा सकता और भूमि अधिग्रहण के मामले में तो ये समझौता एकदम पक्का था, ये समझौता तो रद्द हुआ था राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर क्योंकि जो जमीन इस कारगिल कंपनी को दी गयी थी वो पाकिस्तान सीमा के बिलकुल पास थी और इससे देश को खतरा था | इसके अलावा कोर्ट को ये भी बताया गया कि ये कारगिल कंपनी का मुख्य काम हथियार बनाना है | इस समझौते को रद्द करने के बाद अदालत ने एक टिपण्णी की थी  कि “ये सौदा हमने रद्द किया है देश की सुरक्षा को ध्यान में रखकर और करोडो नागरिकों के हित को ध्यान में रखकर और जल्द से जल्द इस कानून में परिवर्तन किया जाये, संसोधन किया जाये ताकि देश के जरूरतमंद नागरिकों की जमीनें सरकार बेवजह न छीन सके और करोड़ों किसानों को भूमिहीन न बनाया जा सके” | आज इस फैसले को आये 20 साल होने जा रहा है लेकिन भारत सरकार ने इसपर कोई ध्यान नहीं दिया | आज भी इस देश में ये कानून चल रहा है और किसानों की छाती पर मुंग दल रहा है | ऐसे कई उदहारण हैं जैसे दादरी (उत्तरप्रदेश), जहाँ एक भारतीय कंपनी को ताप बिजलीघर लगाना था और 450 एकड़ जमीन की जरूरत थी और वहां की तत्कालीन सरकार ने जरूरत से सौ गुना ज्यादा जमीन किसानों से छीन लिया था, नंदीग्राम (पश्चिम बंगाल अब पश्चिम बंग) में इंडोनेशिया की कंपनी से समझौता पहले हुआ था और जमीन बाद में अधिगृहित की गयी थी जिसका विरोध वहां के किसानों ने किया था लेकिन सरकार ने न कोई मदद की और न ही कोर्ट ने लेकिन किसानों के एकता ने उनको वहां सफलता दिलाई थी, ऐसे ही सिंगुर में हुआ था |
अभी हमारे देश में आर्थिक उदारीकरण के नाम पर एक योजना चल रही है जिसका नाम है Special Economic Zone (SEZ ) | इसके नाम पर हजारों लाखों एकड़ जमीन किसानों से छिनी जा रही है और अलग अलग कंपनियों को बेंची जा रही है और इन कंपनियों को ये अधिकार दिया जा रहा है कि ये कंपनियां इन खेती की जमीनों को औद्योगिक जमीन बना कर दोबारा बेंच सकें | किसानों से जब जमीन ली जाती है तो उसका भाव होता है पाँच हजार रूपये बीघा, दस हजार रूपये बीघा और वही जमीन जब ये कंपनियां दोबारा बेंचती हैं तो इस जमीन का भाव होता है एक लाख रूपये बीघा, दो लाख रूपये बीघा और कभी-कभी ये पचास लाख रूपये बीघा और कभी-कभी एक करोड़ रूपये बीघा तक भाव हो जाता है |  हमारे देश में किसानों से जमीन छिनकर कौड़ी के भाव में, कंपनियों को कम कीमत पर बेंच देना और बीच का कमीशन खा जाना, ये सरकारों ने अपना नए तरह का धंधा बना लिया है और इस कानून की आड़ में भारत के लाखों-करोडो किसानों का शोषण हो रहा है |
दिल्ली के नजदीक एक गाँव है गुडगाँव | कुछ साल पहले वो ऐसा नहीं था, थोड़े दिन पहले यहाँ की जमीन यहाँ के किसानों से ली गयी | यहाँ के किसानों को ये लालच दिया गया कि बहुत पैसे मिल रहे हैं अपनी जमीन बेच दो | उन्होंने अपनी जमीन बेच दी और उन पैसों से कोठियां बनवा ली, गाड़ियाँ ले ली | अब वो कोठिया और गाड़ियाँ एक दुसरे के सामने खड़ी रहती हैं और एक दुसरे को मुंह चिढ़ा रही हैं | क्योंकि किसानों की आमदनी बंद हो गयी है, जब खेत थी तो खाने को अनाज मिलता था और बचे हुए अनाज को बेच के पैसा मिलता था और उससे जिंदगी आसानी से चलती थी लेकिन अब वही किसान वहां बने अपार्टमेन्ट में गार्ड का काम कर रहे हैं, माली का काम कर रहे हैं, इस्त्री करने का काम कर रहे हैं, सब्जी बेचते हैं, दूध बेचते हैं और उनके घर की महिलाएं उन कोठियों में बर्तन मांजने का काम करती हैं, झाड़ू और पोंछा लगाती हैं | जमीन जब चली जाती है तो सब कुछ चला जाता है, ना इज्जत बचती है, ना आबरू बचती है, ना पैसा बचता है, ना सम्मान बचता है, ना संसाधन बचते हैं | हमारे देश में गुडगाँव की कहानी जो है वैसे ही बहुत सारे किसानों की है जिन्होंने इस भूमि अधिग्रहण कानून के तहत जमीने या तो बेचीं या उनसे छीन ली गयी | इन सब किसानों की दुर्दशा इस देश में हो रही है | 
मैं थोड़े दिनों से इस कानून का अभ्यास कर रहा हूँ तो मुझे पता चला है कि हमारे देश का जो संसद भवन है, राष्ट्रपति भवन है वहां पर एक गाँव हुआ करता था , उस गाँव का नाम था मालचा | ये मालचा गाँव पंजाब राज्य का इलाका था बाद में हरियाणा बना तो ये गाँव हरियाणा के अधीन आ गया | इस गाँव के किसानों से अंग्रेजों ने मारपीट कर, डरा-धमका कर जमीन छिनी थी | किसान जमीन देने को तैयार नहीं थे, अंग्रेज सरकार ने जबरदस्ती किसानों से ये जमीने छिनी थी | भूमि अधिग्रहण कानून के हिसाब से नोटिस दिया और सन 1912 में मालचा गाँव के किसानों से तैंतीस (33 ) हजार बीघा जमीन छीन ली थी सरकार ने | किसानों ने जब विरोध किया तो अंग्रेज सरकार ने वैसे ही गोली चलायी जैसे आज चलती है और उस गोलीबारी में 33 किसान शहीद हुए थे, उनकी लाश पर अंग्रेज सरकार ने इस जमीन को भारत के संसद भवन और राष्ट्रपति भवन में बदल दिया और मुझे बहुत अफ़सोस है ये कहते हुए कि जिन किसानों से ये जमीने छिनी गयी उनको आज 100 साल बाद (1912 -2011) और आजादी के 64 साल बाद तक एक रूपये का मुआवजा नहीं मिल पाया है और उन किसानों के परिजन डिस्ट्रिक्ट कोर्ट से हाईकोर्ट और हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक चक्कर लगाते लगाते थक गए हैं और वो कहते हैं कि “जैसे हम अंग्रेजों के सरकार का चक्कर लगाते थे, आजादी के बाद हम हमारी सरकार के वैसे ही चक्कर लगा रहे हैं हम कैसे कहें कि देश आजाद हो गया है, कैसे कहें कि देश में स्वाधीनता आ गयी है”| वो कहते हैं कि “हमारे पुरखे लड़ रहे थे अंग्रेजी सरकार से मुआवजे के लिए और वो मर गए और अब हम लड़ रहे हैं भारत सरकार से कि हमें उचित मुआवजा मिले, हो सकता है कि हम भी मारे जाएँ और हमारी आने वाली पीढ़ी देखिये कब तक लडती है” | हमारे देश का राष्ट्रपति भवन, संसद भवन जो सबसे सम्मान का स्थान है इस देश में वो इसी भूमि अधिग्रहण कानून के अत्याचार का प्रमाण है, शोषण का प्रमाण है | किसानों से जबरदस्ती छीन कर बनाया गया भवन है ये इसलिए मुझे नहीं लगता कि इस संसद भवन या राष्ट्रपति भवन से हमारे देश के लोगों के लिए कोई सद्कार्य हो सकता है, कोई शुभ कार्य हो सकता है, कोई अच्छा कार्य हो सकता है | आजादी के 64 सालों में ऐसा कोई नमूना तो मिला नहीं मुझे | ये कहानी बहुत दर्दनाक है, बहुत लम्बी है, मैं लिखता जाऊं और आप पढ़ते जाएँ | इस अंग्रेजी भूमि अधिग्रहण कानून के इतने अत्याचार हैं इस देश के किसानों पर कि जिस पर अगर पुस्तक लिखी जाये तो 1000 -1200 पन्नों के 50 -60 खंड बन जायेंगे | पुरे देश में इतने अत्याचार और शोषण इस कानून के माध्यम से हुए हैं | 

उपाय क्या है ?
अब आपके मन में सवाल हो रहा होगा कि उपाय क्या है ? उपाय ये है कि किसानों को जमीन का उचित मुआवजा तो मिले ही साथ ही साथ उनके जमीनों से होने वाले मुनाफे में किसानों को भी हिस्सा मिलना चाहिए, कुछ बोनस मिलना चाहिए | जिस कार्य के लिए किसानों की जमीन ली जाये उसमे किसानों का आजीवन हिस्सा होना चाहिए | जो भी मंत्रालय, जो भी विभाग, जो भी कम्पनी, जो भी कारखाना उनकी जमीन ले, तो जमीन का मुआवजा तो वो दे ही साथ ही साथ उस जमीन की मिलकियत जिंदगी भर किसानों की रहनी चाहिए और उस मिलकियत में बराबर का एक हिस्सा उनके शुद्ध मुनाफे में से किसानों को मिलनी ही चाहिए तब जाकर हमारे देश के किसानों की हैसियत और स्थिति सुधरेगी | आपको एक छोटी सी बात बताता हूँ, आप कोई कारखाना लगाते हैं या अपार्टमेन्ट बनाते हैं और उसके लिए बैंक से ऋण लेते हैं तो आप जानते हैं, बैंक का क़र्ज़ जब तक आप वापस नहीं करते बैंक आपके कारखाने में हिस्सेदार होता है | आपने बैंक से एक करोड़ का या जितना भी क़र्ज़ लिया और जब तक आप क़र्ज़ चुकाते नहीं , भले ही आप उसका ब्याज चूका रहे हो बैंक आपके उस संपत्ति में हिस्सेदार होती है | जिस किसान ने अपनी  जमीन दी है और उसके जमीन पर वो कारखाना खड़ा किया गया है तो वो किसान क्यों नहीं उस कारखाने में हिस्सेदार होना चाहिए और वही किसान नहीं उसकी आने वाली पीढियां भी इसका लाभ उठायें ये नियम होना चाहिए तभी किसानों की स्थिति सुधरेगी | ये इस देश की जनता कर सकती है क्यों कि देश की जनता में वो ताकत है, सिर्फ ताकत ही नहीं सबसे ताकतवर है लेकिन उसे कोई जानकारी तो हो |

भारत स्वाभिमान के सैनिकों से अनुरोध 

आप तो जानते हैं कि भारत स्वाभिमान एक संकल्प कर चूका है, एक प्रतिज्ञा कर चूका है और वो संकल्प और प्रतिज्ञा ये है कि भारत स्वाभिमान नाम का हमारा अभियान इस देश में जो सबसे महत्वपूर्ण कदम उठाएगा वो ये कि इस अंग्रेजी, अत्याचारी भूमि अधिग्रहण कानून को जड़-मूल से समाप्त कराएगा ये हमारी प्रतिज्ञा है, हमारा संकल्प है | आप तो जानते हैं कि भारत स्वाभिमान का एक बड़ा संकल्प है कि अंग्रेजों के ज़माने के 34735 कानूनों को इस देश से व्यवस्था परिवर्तन के तहत हटाना है और उन कानूनों में से सबसे पहला कानून है वो यही भूमि अधिग्रहण का कानून है | हमारे देश के किसानों को सबसे ज्यादा अगर कोई मदद करेगा तो वो भारत स्वाभिमान अभियान ही करेगा जो इस अंग्रेजी, अत्याचारी, विनाशकारी, शोषण वाले कानून को रद्द कराएगा ये हमारा संकल्प है, ये हमारी प्रतिज्ञा है | आप सभी भारत स्वाभिमान के जिम्मेदार सैनिक हैं और आपसे विनम्रता पूर्वक निवेदन है कि जो भी भाई-बहन गाँव के रहने वाले हैं या गाँव के नजदीक के शहरों के रहने वाले हैं उनकी ये बड़ी जिम्मेदारी है कि वो गाँव-गाँव जाएँ और लोगों को बताना शुरू करें और उन्हें संगठित करना शुरू करें चाहे वो किसान हो, किसानों के संगठन हो या फिर किसानों के शुभेक्छू हो, सब को जोड़े और सब तक ये बातें पहुंचाएं |